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________________ अमेयचन्द्रिका टीका श.३ उ.२ सू.१ भगवत्समवसरणम् चमरनिरूपणच ३४३ 'तो से पच्छाकायं पबहंति' इति । तेपाममुरकुमाराणाम् ‘पच्छा' पश्चात् रत्नापहरणानन्तरम् 'कार्य' शरीरं ते वैमानिकाः 'पन्वहंति' प्रव्यथन्ते पीडयन्ति जघन्यतः अन्तर्मुहूर्तम् उत्कर्षात् पण्मासान् यावत्-चैमानिकास्तेपां शारीरिकव्यथामुत्पादयन्तीत्यर्थः । गौतमः पृच्छति-'पभूणं भंते !' इत्यादि । हे भगवन् ! ते असुरकुमारा देवाः 'तत्थ' तत्र सौधर्मकल्पे 'गयाचेव समाणा' गताथैव सन्तः 'ताहिं अच्छराहि ताभिः अप्सरोभिः वैमानिकदेवाङ्गनाभिः 'सद्धि' सार्धम् "दिव्वाई भोगभोगाइ' दिव्यान् भोगभोगान् ‘भुंजमाणा' भुस्खाना अनुभवन्तः 'विहरित्तए' विहर्तुम् 'पभू' प्रभवः समर्थाः भवन्ति किम् ? भगवान् आह-'णो इणढे सम?' नायमर्थः समर्थः-हे गौतम ! ते असुरकुमाराः अप्सगौतम के प्रश्नका उत्तर देते हुए प्रभु उनसे कहते है 'तओ से पच्छा कायं पव्वहंति' रत्नापहरण के बाद वे वैमानिक देव उन असुरकुमारों के शरीर को पीडो पहुँचाते है । वैमानिकों द्वारा पहुँचाई यह पीडा कमसे कम एक मुहूर्त तक और ज्यादा से ज्यादा ६ मास तक उन असुरोके शरीर को व्यथित करती है। गौतम पूछते है-'पभूणं भंते !' इत्यादि, हे भदन्त ! वे असुरकुमार देव 'तत्थ' उस सौधर्मकल्पमें 'गया चेव समाणा' जाते के साथ ही 'ताहिं अच्छराहिं वैमानिक देवोकी अङ्गनाओके साथ 'दिन्वाई भोगभोगाई' दिव्य, भोगने योग्य भोगेको 'भुंजमाणा' भोगने के लिये विहरित्तए पभू' क्या समर्थ हो जाते है ? उत्तर देते हुए प्रभु कहते है-'णो 'इण? सम?' हे गौतम । ऐसी बात नहीं है। अर्थात् वे असुरकुमार जानेके साथ ही वैमानिक देवोकी अङ्गनाओंके साथ दिव्य भोगने योग्य भोगोको उत्तर-"तओ से पच्छा कार्य पवहंति" २त्नती यारी यया पछी त मानि દેવો તે અસુરકુમાર દેવોને શારીરિક શિક્ષા કરે છે. વૈમાનિક દ્વારા કરવામાં આવેલી તે શારીરિક શિક્ષા તેમને ઓછામાં ઓછા એક મહતું પર્યત અને વધારેમાં વધારે છ માસ પર્યત શારીરિક પીડા પેદા કરે છે. प्र-"पभूणं भंते ! त्या" महत ! त मसुशुमार है। "तत्थ" त्या "गया चेव समाणा" ती साथै ४ "ताहिं अच्छराहि" पैमानि वोनी वियानी (अप्सराकानी) सा हिसाई भोगभोगाई" हिoय, सवा याश्य लागान "भुजमाणा विहरित्तए पभmanaने शतिमान छे ? उत्तर-"जो इणद्वे सम झौतम ! मे मनतु नथा 22 त्यां જતા વેંત જ અસુરકુમારે વૈમાનિક દેવોની દેવાંગનાઓ સાથે ભેગે ભગવાને સમર્થ
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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