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________________ म. टी. श. ३ उ. १ सू.२७ ईशानेन्द्र केन्द्रयोर्गमनागमननिरूपणम् २९१ प्रयोजनानि 'कर णिज्जाई' करणीयानि विधेयानि कार्याणि 'समुपज्जेति' सम्मुपद्यन्ते किम् ? 'हंता, अस्थि' हन्त अस्ति, अस्ति सन्ति, तयोः परस्परं कृत्यानि करणीयानि कार्याणि । आदि का विशेषण कैसे बना सकते हैं क्यों कि जिनका विशेषण विशेष्यभाव संबंध होता है वे समान विभक्ति आदि वाले होते हैं - परन्तु 'अस्थि' पद तो ऐसा है नहीं अतः इस प्रकार की मान्यता में यहां पर विभिन्नवचनकृत दोष आता है तो इसका समाधान यह है कि 'अस्थि' यह पद जो है वह विभक्ति प्रतिरूपक अव्यय है । अतः विभक्ति प्रतिरूपक अव्यय होने के कारण उसमें कृत्यादिकों के प्रति विशेषणत्वरूप होने का अभाव प्रसक्त नहीं होता है । 'किचाई' शब्द का अर्थ है प्रयोजन और 'करणिजाह" का अर्थ है विधेय (करने योग्य) कार्य । प्रश्नका आशय यह है कि शक्र और ईशान का आपस में क्या कभी कोई कार्य या प्रयोजन होता है ? जिस प्रकार हमारा आपस में एक दूसरे के साथ प्रयोजन सघता है - कार्य भी हमारा एक दूसरे से चलता है उसी प्रकार से क्या इन दोनों का भी आपस में प्रयोजन सधता है ? कार्य भी क्या इनका परस्पर में एक दूसरे से बनता है ? तो इसका समाधान करते हुए प्रभु गौतम से कहते हैं कि- 'हंता अस्थि' हे गौतम ! हां ऐसा इन दोनों में आपसी कार्यों एवं प्रयोजनों को लेकर एक दूसरे के તરીકે કેવી રીતે વાપરી શકાય ! વિશેષણ અને વિશેષ્યનાં વચન અને વિર્ભાકત સમાન हाय छे. अहीं तो विशेष मे वयनभां गमने विशेष्य महुवनभां छे. ते "अस्थि " ને ‘કૃત્યા’ ના વિશેષણરૂપે વાપરવામાં વ્યાકરણદેષ લાગવાના સંભવ છે. તો તેનું सभाधान नाथे प्रभाणे हे - " अस्थि " यह विलतिप्रतिय सव्यय तरी सहीं વપરાયુ' છે. તેથી તેમાં કૃત્યાદિના વિશેષણ તરીકેના ઉપયેગને અભાવ પ્રકટ થતા નથી. "किच्चाई" भेटले प्रयोक्न भने "करणिज्जा" भेटले ४२वा योग्य अर्थ उडेवानु તાત્પર્ય એ છે કે શક્રેન્દ્ર અને ઈશાનેન્દ્રને અરસ્પરસ કરવા યેાગ્યું કાઈ કાર્યો હાય છે ખરાં ? જેમ આપણે કાય અથવા પ્રયેાજન સાધવા માટે એક ખીજાના સહકાર સાધીએ છીએ જેવી રીતે કાઇ પ્રત્યેાજત સાધવા માટે તે બન્ને ઇન્દ્રો એક બીજાના સહકાર સાધે છે ખરાં? શું તેએ એક બીજાના કાય માં મદદરૂપ થાય છે? Gur-" ar afer" હા, ગૌતમ! કાર્યો અને પ્રયોજનાને કારણે તેએ એક બીજા પાસે જતા-આવતા રહે છે,
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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