SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 356
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - २६२ भगवतीय वर्धापयन्ति, वर्धापयित्वा एवम् अवादिषुः-भहो । देवानुमियः दिव्यादेवादिक, यावत्-अभिसमन्वागता, सा दिव्यानां देवानुप्रियाणाम् दिव्या देवदिः, यावदलन्धा, मातर, अमिसमन्यागता, तत् क्षमगामो देवानुमियाः ! समन्ताम् देवानुमियाः ! क्षमितुम् अर्हन्तु देवानुमियाः ! नेव भूयोभूयः एवंकरणतया इतिकता इमम् अर्थम् सम्यग विनयेन भूयोभूयः क्षमयन्ति, ततः स ईशानी देवेन्द्रा, अंजलिं कट जएणं विजपणं बदाचिंति ) देवेन्द्र देवराज ईशान की उस दिव्य देवद्धि दिव्य देयशुति, दिव्य देवानुभाव, और दिव्य तेजोलेश्याको नहीं सहन करते हुए सबके सघ देवेन्द्रदेवराज ईशान के सामने, उसकी चारो दिशाओं में, · चारों विदिशाओं में, खडे हो गये, खडे हो कर दशां नख जिसमें आपस में जुड़ जाते है ऐसी दोनों हाधोंकी अंजलि यना करके और उसे शिरमा वर्तयुक्त करके मस्तक पर रखते हुए ये फिर आपकी जय हो आपकी विजय हो इस प्रकार के जयविजययुक्त शब्दो से उसे वालन लगे और (एवं वयासी) इस प्रकार से कहने लगे (अहो णं देवाणु प्पिएहिं दिव्या देविडा जाव अभिसमण्णागया) अहो ! आप देवान प्रिय ने जो दिव्य देवद्धि यावत् प्राप्त की है (तं दिव्याणं देवाणुप्पियाण दिबा देविड्डी जाव लद्धा, पत्ता अभिसमपणागया) वह यावत् लब्ध प्राप्त एवं अभिसमन्वागत दिव्य देवदि आप दिव्य देवानुप्रियकी हम लोगेांने अच्छी तरह से प्रत्यक्ष देखली है । (ते खामेमो देवाणुप्पिया ! खमंतु मत्थए अंजलि कडे जएणं विजएणं बद्धाविति) देवेन्द्र, देवरा शाननी व्य દેવદ્ધિ, દિવ્ય દેવતિ, દિવ્ય દેવપ્રભાત અને દિવ્ય તે જેલેશ્યા તેઓ સહન કરી શકયા નહીં. તેઓ બધાં દેવેન્દ્ર, દેવરાજ ઈશાનની સામે. ચારે દિશાઓમાં તથા ચારે ખૂણામાં ઉભા થઈ ગયાં. તે વખતે તેમણે તેમના હાથને જોડીને એવી રીતે, અંજલિ બનાવી કે દસે નખ એક બીજા સાથે મળી જાય. તે અંજલિને મસ્તક પર રાખીને તેમણે ઈશાનેન્દ્રને નમસ્કાર કર્યા. “આપનો જય હે, આપને વિજય હે ! એવા જયઘોષથી तभा शानन्दन सन्मान यु भने (एवं बयासी) मा प्रभारी ड्यु- (अहो णं देवाणुप्पिएहिं दिव्या देविड्डा जाव अभिसमण्णागसा) है पानुप्रिय! भार हिन्य पद्धि, विधुति, हिoया प्राप्त ४या छे, (तं दिवाणं देवाणुप्पियाणं दिव्या देविडो जाव लड़ा, पत्ता, अभिसमण्णागया) भेजच्या छ, अलिसभावाગત કર્યા છે, તે દિવ્ય દેવદ્ધિ આદિ અમે આજે અમારી આંખેથી જોયા છે
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy