SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 325
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ म. टी. श. ३ उ. १ ख २२ बलिचंचाराजधानिस्थदेवादिपरिस्थितिनिरूपणम् २२९ निर्गच्छन्ति, निर्गत्य च 'जेणेव ' यत्रैव यस्मिन्नेव मदेशे 'जेणेव तेणे' इत्यत्र सप्तम्यर्थे तृतीया । ' यगिंदे ' रुचकेन्द्रनामकः ' उपायपन्त्रए ' उपपातपर्वतः वर्तते 'तेव' तत्रैव तस्मिन्नेव प्रदेशे ' उवागच्छंति ' उपागच्छन्ति 'उबागच्छित्ता' उपागम्य ' येउच्चियसमुग्धायेणं' वैक्रियसमुद्घातेन ' समोहणंति ' समवघ्नन्ति, 'जाब - उत्तरवेउन्विया" यावत्-उत्तरवै क्रियाणि 'रुवाई' रूपाणि 'विकुव्वंति' विकुर्वन्ति चिकीर्षितरूपनिर्माणार्थ द्वितीयवारसमुद्घातद्वारा वैक्रियाणि रूपाणि निष्पादयितुं त्रिकुर्वणां कुर्वन्ति, विकुर्वित्वा च 'ताए' तया कया sपि विवक्षितया अग्रे ववक्ष्यमाणया 'उक्किहाए' उत्कृष्टया उत्कर्षशालिन्या 'देवगत्या' इत्यग्रेणान्वयः पुनः कीदृश्या इत्याह- तुरियाए ' त्वरितया ससंभ्रमया कार कर लिया, स्वीकार करके फिर वे बलिचंचाराजधानी के 'मज्झ मज्झेणं' ठीक मध्य भाग से होकर 'निग्गच्छड़' निकले। और निकल कर 'जेणेव रुयगिंदे उप्पायपव्चए' जिस तरफ रुचकेन्द्र नामका उत्पाद पर्वत था " तेणेव उवागच्छंति ' वहां पर आये । ' उवागच्छित्ता' वहां पर आकर के उन्होंने 'वेडव्विय समुग्धाएं समोहणंति' वैक्रिय समुद्धात किया 'जाव उत्तरवेउग्वियाई रुवाई विकुब्वंति यावत् उत्तर वैक्रियरूपोंकी विकुर्वणा की इच्छितरूपों को निर्माण करने के निमित्त द्वितीयवार समुद्घातद्वारा वैक्रियरूपों को बनाने के लिये विकुर्वणा की विकुर्वणा करके 'ताए' उस विवक्षित 'उकिडाए' उत्कर्षशालिनी देवगति से वे अनेक असुरकुमार और देवियां तामली के पास आए ऐसा यहां संबंध लगा लेना चाहिये । देवगति के विशेषणों का खुलाशा अर्थ इस प्रकार से है देवगति उत्कृष्ट होती है वह तो कह ही दिया गया है तथा वह देवगतिपर्वत इतो " तेणेव "वेउन्त्रिय समुन्या रुयगिंदे उप्पाय पाए" नयां सभकेंन्द्र वासना उत्याह उवागच्छति” त्यां गया "उवागच्छित्ता" त्यांने ते एणं समोहणं ति" वा४य समुहात य, "जाव उत्तरवेउन्नियाई वाई विकुव्वंति" અને ઉત્તર વૈક્રિય રૂપાની વિધ્રુણા કરી. એટલે કે પેાતાની ઇચ્છાનુસાર રૂપાનું નિર્માણુ કરવાને માટે ખીજી વાર સમુદ્ધાત દ્વારા વૈક્રિયરૂપ બનાવવાને માટે વિષુવાશકિતના उपयोग यथा प्रारे विदुरीने तेथे " ताए " नीचे हर्शाव्या प्रमाधुनी "उकिट्टाए" युक्त हेग गतिथी तामसिनी पासे साप्या. हवे ते उत्कृष्ट देव ગતિના વિશેષણે નીચે આપવામાં આવ્યાં છે—તે દેવત્તિ ત્વરિત, ચપલ, ચંડ,
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy