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________________ - - - २१२ ...........:.::: : : भगवती समादरहितेन इत्यर्थः, -- मगृहीतेन अतिशयादरसमानगृहीतेन, . कल्याणेन नैरुज्यकारकेण, शिवेन कल्याण हेतुना, धन्येन प्रशम्येन, माल्येन. दुरिनो. पशामकेन इत्यर्थ; 'उदत्तेण' उदात्तेन विशुद्धसत्वशालिना उत्तमेणं' उत्तमेन 'महाणुभागेणं' महानुभागेन महामभावशालिना, उदग्रेण तीवेण, उदारण औदार्यवता निस्पृहातिरेकात् शरीरे ममत्वानोवाद उत्तमेन अप्ठेन उदान उधभावनासंपादितेन, महानुभागेन अचिन्त्यसामर्थ्यशालिमा नम्वोकम्मेष तपाकर्मणा 'मुक्केलुक्खे' शुष्कः रुक्षः 'जाव-धमणिसंतए' यांवत् धमनी तिशय .आदर और सन्मान भाव से गृहीत, नैरूज्यकारक, कल्याणकारक, प्रशस्य और दुरितोपशमक, 'उदत्तणं' विशुद्धमत्वशाली 'उसमेणं' उत्तम 'महाणुभागेणं' महाप्रभावशाली तपःकर्मके सेवन करने से 'सुक्के लुक्खे' शुष्क हो गया हैं-रुक्ष हो गया है। अ र्थात् जिस तप को मैं आचरित कर रहा ह-वह बहुत ही अधिक तीव है इसके आचरण करनेसे आचरिता को शरीर में निस्पृहता का अतिरेक इतना अधिक बढ़ जाता है कि वह अपने शरीरतक में भी निर्ममत्व पन जाया करता है, तप की श्रेष्ठता इसी कारण से मानी जाती है कि वह जीव को शरीर में भी निर्ममत्व बना देता है। यह तप जो मैने आचरित किया है वह ऐसी वैसी भावना से प्रेरित होकर आचरित नहीं किया है किन्तु उच्चभावना से आचरित किया है। इसी कारण इसका प्रभाव अचिन्त्य है। अतः ऐसे विशिष्ट तपाकर्म के आचरण करते२ मेरा यह शरीर सूख गया है बिलकुल रूखा गया है। यहाँ तक इसकी दशा हो चुकी है कि खून मांस तो इसमें नाममात्र भी शेप नहीं रहा है। ४२०, tourist२(नाना Erus), श्या५२४, प्रशस्य, भारी, 'उदत्तेणं'; विशुद्ध सत्पी , 'उत्तमेणं' उत्तभ, "महाणुभागेणं" मा प्रशांquी, तपना सेवनधी मा श२ "सुक्के लुक्खे" गयु छ, ३६ गयु. ४ार्नु તાત્પર્ય એ છે કે તામલિ અતિશય કઠિન તપની આરાધના કરી રહ્યા હતા આવી તપસ્યા કરનાર જીવને પિતાના શરીર પર મમત્વ રહેતું નથી. આ તપની આરાધના કરવા પાછળ કેઈ સાંસારિક સુખપ્રાપ્તિની ભાવનાનું. બળ કામ કરતું ન હતું પણ મેક્ષપ્રાતિની ઉચ્ચ ભાવનાથી તેનું આશધાન કરાતું હતું, કઠિન તપની આરાધનાથી પિતાને શરીરને તદ્દન નબળું પડેલું જોઈને તામલિ વિચાર કરે છે કે મારું શરીર સૂકાઈ ગયું છે. બધાં અંગો ક્ષ બની ગયાં છે. તેમાં માંસ અને રક્ત તે નામના પણ ક્યાં નથી રક્ત તથા માંસને અભાવે શરીરની નસે
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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