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________________ १८६ भगवतीचे " > 'पहि' पशुभिः, पूर्वोक्तमेव गोवलीवर्दन्यायेन सविशेषमाह “विपुल धण-कणगरयण-मणि- मोत्तिय संख सिल-प्वाल - रत्तरयण संतमारमावएज्जेणं" विपुल धन- कनक - रत्न- मणि- मौक्तिक- शंख-शिलामा - रक्तरत्न समारस्वापते येन. तत्र विउलं विपुलं मधुरम् विपुलशब्दस्य सर्वत्रान्वयः कर्त्तव्यः, धनं- गणि मादिरूपम् कनकं भुवर्ण, रत्नं- कर्केतनादिकम्, मणिन्द्रकान्तादिः, मौक्तिकं प्रसिद्धम् शरः - दक्षिणावर्तादिः शिलामवालं विद्रुमम् यद्वा शिला-शुभलक्षण पापाणविशेषः, रक्तरत्नं - पद्मरागादिकम्, सत्मारं - शोभनसारयुक्तम् सा से घट रहा हूं, 'पहिं यामि' पशुओं से यह रहा है, अर्थात् इन सय धन धान्यादिक की मेरे यहां अधिक मात्रा में दिन प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है, इस तरह 'विउल घण-कणग-रग-मणिमौतिय-संख-सिलप्पवाल-रत- रयण-संतसारसाव एज्जेणं अईवर अभियामि' मेरे यहां पर विपुलमात्रा में धन, कनक, रत्न, मणि मौक्तिक, शंख, शिला, मवाल, रक्तरत्न, सत्सारवाला स्वापतेय धन बहुत बहुत रूपसे बढ रहा है | विपुल शब्द का अर्थ प्रचुर है और इसका संबंध धन कनक आदि सबके साथ लगा लेना चाहिये । गणिमादिरूप पदार्थ धनशन्दसे गृहीत हुए हैं । कनक शब्दका अर्थ सुवर्ण सोना है । ककतनादिकरत्न रत्न पदसे लिये गये हैं । चन्द्रकान्तादि मणि मणिपद से गृहीत हुए हैं। मौक्तिक प्रसिद्ध हैं । दक्षिणावर्तादि शंख शंख पदसे लीये गये । शिला प्रवाल से मृगा लिया गया है । अथवा शुभलक्षणोंवाला जो पाषाण विशेष होता है वह शिला है ऐसा "पुतेहिं वाम" संतांनानी पाशु वृद्धि यह रही छे, ""मूर्हि ढामि" गाय, लेंस माहि पशुगोनी पशु वृद्धि था रही है. मेन प्रभावे "विउल धणकणगरयण-मणि-मोत्तिय संख - सिलप्पवाल- रत्त- रयण - संतसारसात्र एज्जेणं अईवर अभिवामि . " भारे त्यां धन, ४न (सुवर्थ), रत्न, भणि, भोती, शय्य, शिक्षा, प्रवास, २४त २त्न, मने सत्सारवाजा स्वायतेय ( सार३य द्रव्य समुहाय ) વગેરેમાં વિપુલ પ્રમાણમાં વધારે થઇ રહ્યો છે. વિપુલ એટલે મોટા પ્રમાણમાં. અહીં દરેક શબ્દ સાથે તેના પ્રયાગ કરવાના છે धन शब्दधी मि (सोनामडोर) माहि સિકકા ગ્ર§ણુ કરવા. કનક એટલે સેાનું. રત્ન એટલે કેતન આદિ રત્ન, મણિ એટલે ચન્દ્રકાન્ત આદિ મણિ, મૌતિક એટલે સાચાં માતી, શ`ખ એટલે દક્ષિણાવર્ત આદિ શંખ, શિલાપ્રવાલ એટલે મૂંગા (પરવાળાં) અથવા શુભ લક્ષણેાવાળા પાષાણુ વિશેષને માટે શિલા શબ્દને પ્રયાણ કર્યાં છે અને પ્રવાલ એટલે પરવાળાં, પદ્મરાગ અને - -
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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