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________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श. ३ उ. १ सनत्कुमारदेवऋद्धिनिरूपणम् मानिकादिपट्टम हिप पर्यन्तदेवानुपरि स्वाधिपत्यस्वामित्वगत्वादिकमपि पूर्ववदेव केवलं पूर्वदेवापेक्षया विशेषतामाह- 'नवरं' विशेषः पुनरेतवानेव यत् स त्रिकुणाशतया वैक्रियसमुद्घातेन समग्रहत्य निर्मितनिजात्मनानारूपैः 'सातिरेगे' : सातिरेकान् इति साधिकान् इत्यर्थः ' चत्तारि ' चतुरः ' केवलकप्पे " के कल्पान संपूर्णान, 'जंबूदीचे दीवे' जम्बुद्वीपान द्वीपान पूरयितुं समर्थः । ' एवं ' तथैव 'एव ब्रह्मलोकेऽपि अर्थात् ब्रह्मलोकदेवस्यापि समृद्ध्यादिकं स्वसामानिकानुपरि स्वाधिपत्यादिकमपि पूर्ववदेव बोध्यम्, 'नवरं' विशेपरंतु अयमेव यत् स ब्रह्मेन्द्रः तदीयसामानिकादिदेवाश्च विकुर्वणाशक्त्या वैक्रियजानना चाहिये । यद्यपि अपने सामानिक देवों से लेकर परिवार सहित अग्रमहिपियों तक के ऊपर माहेन्द्रका आधिपत्य स्वामित्व भर्तृत्व आदि कुछपूर्व के जैसा ही है परन्तु फिर भी पूर्व देवों की अपेक्षा इसमें जो विशेषता है वही 'नवरे' इस पद द्वारा यहां प्रकट की गई जो इस प्रकार से है - माहेन्द्रकल्पका इन्द्र विकुर्वणाशक्तिसे वैक्रिय समुद्रात करके निर्मित अपने नाना रूपों द्वारा 'मानिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूद्दीवे दीवे' कुछ अधिक चार संपूर्ण जंवृद्धोपों को भर सकने में समर्थ हो सकता है । ' एवं ' इसी तरह से 'बंभलोए वि' ब्रह्मलोक का जो इन्द्र हैं उसके विषय में भी जानना चाहियेवह भी समृद्धिशाली है-अपने सामानिक देवों आदिके ऊपर वह भी स्वाधिपत्य आदि रखता हुआ दिव्य भोगोंको भोगता रहता है परन्तु इस वर्णन में और पूर्वके इन्द्रादि कों के वर्णन में विशेषता विकुर्वणा शक्ति को लेकर इस प्रकार से है--ब्रह्मलोकका इन्द्र तथा उसके सामा १४५ પ્રમાણે જ સમજવું જે કે સામાનિક દેવો ત્રાયસ્ક્રિશકે! લેાકપાલા અગ્ર હુિષીએ ઉપરના આધિપત્ય, સ્વામીત્વ આદિનું વર્ણન ઇશાનેન્દ્ર જેવું જ છે, તા પણ માણૅન્દ્રકલ્પના ઇન્દ્રના વિધ્રુણાશકિતમાં જે વિશેષતા છે તે “નવા પદ દ્વારા પ્રકટ કરી छे, ते विशेषता नीथे प्रभा - "सातिरेगे चतरिकेवलकपणे जंबूदीवे दीवे" માહેન્દ્રકલ્પના ઈન્દ્ર પાત.ની વિધ્રુવ ણા શકિતથી વૈક્રિય સમુધ્ધા કરીને વિવિધ રૂપાનું નિર્માણુ કરીને, તે રૂપા વડે ચાર સપૂર્ણ જ ખૂદ્દીપા કરતાં પણ વધારે જગ્યાને भरा शावने समय छे. एवं बंभलोए प्रिया न्द्र विषे અમ જ સમજવું. તે પણ ઇશાનેન્દ્રના જેવી જ સમૃદ્ધિ વગેરેથી યુકત છે. તે પણુ તેના સામાનિક દેવ આદિ પર આધિપત્ય ભેગવે છે. પણ તેની વિકુČણા શકિતમાં
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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