SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ সতীশ टीका- महावीरस्वामिनः सकाशाद् वैरोचनेन्द्रबलिराजस्य समृदयादिक श्रुत्वा द्वितीयो गणधरोऽमिभूतिर्वन्दनपूर्वकं नमस्कुर्वन् महावीरमभं नाग. कुमारेन्द्र धरणस्य पदयादिकं जिज्ञासमानः पृच्छति-'भंते !-ति, भगवं'इत्यादि । हे भदन्त ! यलिनामा औदीच्यामुरकुमारेन्द्रः उत्तरदिशाधिपतिः . 'वइरोयर्णिदे' वैरोचनेन्द्रः पूर्व व्याख्यातम् । 'एवं मदिढीपति, एवं महर्दिकः यधोक्तदिव्यऋद्धिसम्पन्नः । 'जाव-एवइयं च णं' ति । यावत्-एतावद, यावत्पदम् अशेपार्थकतया-पूर्ववर्णितार्थवाचकम् । 'पभू' नि । प्रभुः समर्थः । जोईसिया वि-नवरं दाहिणिल्ले सन्ये अग्गिमूई पुच्छई, उत्तरिल्ले सब्वे वाउभूई पुच्छइ) इसी तरहसे यावत् स्तनितकुमार, चाणमन्तर, ज्योति पिक भी जानना चाहिये । विशेपता यह है कि समस्त दक्षिणदिशाके इन्द्रोंके विषय में अग्निभूति पूछते हैं और उत्तरदिशाके इन्द्रोंके विषयमें वायुभूति पूछते हैं |सू० ८॥ टीकार्थ- महावीरस्वामी से वैरोचनेन्द्र पलिराज की समृद्धयादिक सुनकर द्वितीय गणधर अग्निभूतिने वन्दना नमस्कार करके महावीर प्रभुसे नागकुमार धरणेन्द्र की द्वधादिक जाननेकी इच्छा से पूछा-कि "भंते" हे भदन्त ! पलि नाम का जो औदीच्य असुरकुमारेन्द्र उत्तरदिशाधिपति वैरोचनेन्द्र है उसके विषयमें तो आप से घृत्तांत सुना है इससे हम यह जान गये हैं कि वह 'एवं महिड्डीए' इस प्रकारकी महाऋद्धि से युक्त है। 'जाव एवइयं च णं पभू' और चावत् वह इस प्रकारको विक्रिया करसकनेमें समर्थ है। यहां 'यावत' पद से पूर्व में वर्णित समस्त अर्थ गृहीत हुआ है। परन्तु अब मैं यह जानना जोडसिया व नवरं दाहिणिल्ले सव्वे अग्गिभूई पुच्छइ उतरिल्ले सव्वे वाउभूई पुच्छइ એજ પ્રમાણે સ્વનિતકુમાર વાણુમંતર અને તિષિક દેના વિષયમાં પણ સમજવું વિશેષતા એ છે કે સમસ્ત દક્ષિણ દિશાના ઇન્દ્ર વિષે અગ્નિભૂતિ પૂછે છે અને ઉત્તર દિશાના દેવો વિશે વાયુભૂતિ મહાવીર પ્રભુને પૂછે છે. સૂ ૮ ટીકાથ– વિરેચનેન્દ્ર બલિરાજની સમૃદ્ધિ આદિનું વર્ણન મહાવીર સ્વામીને ખેથી સાંભળીને બીજાં ગણધર વાયુભૂતિ અણગારે નાગકુમારે દ્ર ધરણની સમૃદ્ધિ આદિ गुवानी २tथी ! नमा ४शने महावीर प्रभुने पूछ्युभते". प्रलो शालिपति शयनेन्द्र मलि "एवं महिए" मा अनी महासभृद्धि माह था त छ, " जाव एवइयं च णं पभू" मने 21 मारनी विवातिवाणी છે એ વાત તે આપના મુખેથી સાંભળી અહીં યાવતું પદથી પૂકત સમસ્ત સૂત્રપાઠ
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy