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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श. ३ उ. १ अभिभूतेः वायुभूतिं प्रति चमरऋद्धिस्वरूपम् ५५ सर्वम् अपरिशेषम् भणितव्यम् - भगवन ! द्वितीयो गौतमोऽग्निभूतिर्माम् एवं कथयति यत् चमरः अमुरेन्द्रो महर्द्धिसम्पन्नो महाप्रभावः सौभाग्यशाली चतुत्रिशल्लक्षसंख्याकभवनावासादीनां स्वसत्ताधिपत्येन स्वामित्वं कुर्वन् दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जान विहरति, विकुर्वणाशक्त्या च चैकियसमुद्घातेन समवहत्य जम्बूद्वीपम् असंख्यातान् द्वीपसमुद्रांच व्याप्तुं शक्नोति, 'जाब - अग्गमहिसीणं वत्तव्यया समत्ता' यावत् अग्रमहिषीणां वक्तव्यता समाप्ता - एवं तदीयसामानिकत्रायस्त्रिंशकलोकपालाग्रमहिषीणामपि तथैव समृद्ध्यादिसमुपभोगपूर्वकं बैक्रिentertain ada इति ' से कहमेवं भंते एवं ?' तत्कथमेतद भगवन ? एवम् यद् यदुक्तम् तत्तत्सर्वम् हे भगवन् सत्यमस्ति ? ॥५॥ सव्वं अपरिसेसं भाणियां जाव अग्गमहिसीणं चत्तव्वया सम्मत्ता' वह वहां३४चीत्तीसलाख भवनाचासोंका एकाधिपत्य भोगता हुआ दिव्य भोगोंको भोगता रहता है विकुर्वणाशक्ति उसकी इतनी वढी चढ़ी है कि उससे वह वैक्रिय समुद्घात से युक्त होकर इस जम्बूद्वीपको तथा असंख्यात द्वीप समुद्रोंको भर सकता है इत्यादि रूप से पूर्व का सब कथन वायुभूतिने जैसा कि उनसे अग्निभूतिने कहा था प्रभु महावीरके पास कह दिया. वहाँ तक का कि जहां तक के कथन में अग्रमहिपियोंकी वक्तव्यता समाप्त हुई है । इस प्रकार चमर के सामानिक देव, त्रयत्रिंशकदेव, लोकपाल, अग्रमहिपियों की भी उसी प्रकार से समृद्धि आदि का उनके दिव्यभोगों, उनके चैक्रियकरणादि सामर्थ्य का कथन करके वायुभूतिने 'से कहमेयं भंते! एवं ' प्रभु से पूछा - हे भदन्त ? यह सब कथन क्या सत्य है ? || लू. ५॥ जात्र अग्गमहिसीणं वत्तच्वया सम्मत्ता" ते त्यां यात्रीस साथ लवनावासी पर આધિપત્ય આદિ ભાગવે છે તે ત્યાં અનેક દિન્ય ભાગે ભેળવે છે તે એટલી બધી વિધ્રુણા શકિત ધરાવે છે કે વૈક્રિય સમુદ્દાત દ્વારા ઉત્પન્ન કરેલા અનંત દેવ દેવીએ વડે તે જ મૂદ્દીપને તથા તિર્યંમ્લેકના દ્વીપ સમુદ્રોને ભરી દઇ શકે છે આ રીતે ચમરની પટ્ટરાણીઓની સમૃદ્ધિ તથા વિકણુા શકિત સુધીના વિષયમાં અગ્નિભૂતિએ કહેલી બધી વાત વાયુભૂતિ અણુગારે મહાવીર પ્રભુને કહી સભળાવી આ રીતે ચમરના સામાનિક દેવ, ત્રાયઐિશક દેવે લેાકપાલે અને પટ્ટરાણીની સમૃદ્ધિ, દિવ્ય ભાગા, વૈક્રિય शक्ति माहिनुं वर्णन दीने वायुभूति भहावीर अभुने पूछयु " से कहमेयं भंते एवं " हे लन्त अभिभूति गुगारनं ते स्थन शुं सत्य हे ? !! सू. ५ ॥
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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