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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श.४ उ.१० सू.१ लेश्यापरिणामनिरूपणम् ९१३ केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ-कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प ता रूपत्ताए, ता वण्णताए, ता गंधत्ताए, ता रसत्ताए, ता फासत्ताए मुन्नो भुजो परिणमइ ? गोयमा ! से जहानामए खीरे दृसि पप्प, सुद्धे वा बत्थे रागं पप्प, ता स्वत्ताए, ता चण्णत्ताए, ता गंधत्ताए, ता रसत्ताए, ता फासत्ताए भुजो भुजो परिणमइ, से एएणटेणं गोयमा ! एक चुच्चइ कण्डलेस्सा०' इत्यादि । तव केनार्यन भगवन् ! एवम् उच्यते-कृष्णलेश्या नीललेश्यां प्राप्य तद्रपतया, तद्वर्णतया, तद्गन्धतया, तदसतया; तत्स्पर्शतया, भूयो भूयः परिणणति ? गौतम ! तद्यथा नाम क्षीरं दपी (तक्रम् ) प्राप्य. शुद्धं वा वस्त्रं द्रव्योंको ग्रहण करके मरता है वह उसी लेश्यावाला होकर दूसरी जगह उत्पन्न होता है। यही बात 'तागंधनाए तारसत्ताए, ताफासत्ताए, भुजो भुज्जो परिणमति' इत्यादि पदों द्वारा व्यक्तकी गई है। अय गौतम प्रभुसे पूछते हैं कि ' से केणटेणं भंते ! एवं घुचइ कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णत्ताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुनो भुज्जो परिणमई' हे भदन्त ! आप ऐसा किस कारणसे कहते हैं कि कृष्णलेश्या नीललेश्याको प्राप्तकर उसके जसे रूपमें, उसके जैसे वर्णमें, उसके जैसे गंधमें, उसके जैसे रसमें, उसके जैसे स्पर्शमें बार२, परिणत होती रहती है ? तब इसका उत्तर देते हुए प्रभु गौतमसे कहते हैं कि जैसे दूध तक्र को प्राप्त होकर उसके जैसे रूपमे परिणम जाता है, उसके जैसे वर्णमें परिणम जाता है, उसकी जैसी गंधवाला हो जाता है, उसके जैसे रसवाला हो जाता हैं, और उसके जैसा स्पर्शवाला हो जाता है; કરીને જીવ મરે છે, એ લેસ્થાના પરિણા મવાળ થઈને તે જીવ બીજી જગ્યાએ ઉત્પન્ન थाय छ.' से वात 'ता गंधत्ताए. ता रस्सत्ताए, ता फासत्ताए भुजा भुज्जा परिणमंति' त्याहि ह द्वारा ०५४ ४२वामां मावेत. हवे गौतम स्वामी महावीर प्रभुने पूछे थे , 'से केणटेणं भंते! एवं बुच्चइ कण्णलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारूवत्ताए तावण्णताए तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजो भुजो परिणमई' B महन्त! याप थाणे मे ४ा छ। ક કૃષ્ણલૈશ્યા નીલલેસ્થાને સંગ પામીને તેના જેવા રૂપમાં, તેના જેવા વર્ણમાં, તેના જેવી ગંધમાં, તેના જેવા રસમાં અને તેના જેવા સ્પર્શમાં વારંવાર પરિણમતી રહે છે કે ઉત્તર- હે ગૌતમ જેવી રીતે દૂધ સાથે છાશ સંયોગ થવાથી, દૂધ છાશ ૨૫ પારણુમે છે, તેનાં રૂપ, વર્ણ, ગંધ, રસ અને સ્પર્શ છાશના જેવા જ બની જાય
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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