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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श ३३ ७.५ वैश्रमणनामकलोकपालस्वरूपनिरूपणम् ८४९ काइया ण देवाण' तेपा वा वैश्रवणकायिकाना देवानामपि नाम्नातानि इप । अथ वैश्रमणस्य पुत्रस्थानीय देवानाह - 'सकस' शक्रस्य ' देविंदस्य ' देवेन्द्रस्य ' देवरण्णो ' देवराजस्य 'वेसमणस्स ' वैश्रमणस्य ' महारष्णो ' महाराजस्य इमे वक्ष्यमाणरूपा देना ' अहानच्चाऽभिष्णाया ' यथाऽपत्याऽभि शता, पुत्र सदृशत्वेनाभिमता ' होत्या ' सन्ति, तानेवाठ - 'त जहा ' - तद्यथा 'पुष्णमद्दे' पूर्णभद्र, 'मणिमद्दे' मणिभद्र, 'सालिभ' शालिभद्र, 'सुमणभद्दे' सुमनो भद्र, 'चक्के' चक्र' 'रक्खे' रक्षक, 'पुण्णरक्खे' पूर्णरक्ष 'सष्वाणे' सवान 'सच्चजसे ' सर्व यशा ' सा' सर्वकाम, 'समिद्धे' समृद्ध 'अमाद्दे' अमोघ, 'असगे' अस उति अथ वैमणस्य स्थितिमा - 'सकस' वे समणकाइयाण देवाण' वैभ्रमण महाराज के जो वैश्रमणकायिकदेव हूँ उनसे भी ये पूर्वोक रूप्यक आदि द्रव्य पूर्वोक्त स्थानोंमें पडी हुई होने पर अज्ञात, अदृष्ट, अश्रुत, विस्मृत और अविज्ञात नहीं रहती हैं । अर्थात् ये उनके द्वारा भी जात, दृष्ट, श्रुत, स्मृत और विज्ञात ही रहती हैं । अथ सूत्रकार वैश्रमण महाराज के पुत्रस्थानीय देवों को प्रकट करते हुए कहते हैं कि 'सकस्स देविंदस्स देवरण्णो' देवे न्द्र देवराज शक्र के ये जो चतुर्थ लोकपाल 'वेसमणस्स महारण्णो' वैश्रमण महाराज हैं, इनको 'इमे देवा' ये देवकी जिनका नाम निर्देश अभी कहते है 'अहावच्चाऽभिप्रणाया' पुत्ररूपसे अभिमत है 'त जहा ' उनके नाम ये हैं 'पुण्णभद्दे' पूर्ण भद्र, 'मणिमहे' मणिभद्र' 'सालिभ' शालिभद्र, सुमणभाँ' सुमनेाभद्र, 'चके' चक्र, 'रक्खे' रक्षक, 'पुण्ण खे' पूर्णरक्ष, 'सवाणे' सदधान् 'सन्धजसे' सर्वयश, 'सम्बकामे' सर्वकाम, 'ममिद्धे' समृद्ध, 'अमोहे' अमोघ, 'असगे' असग वैश्रमण देवाण' मना नै देवा चक्षु तेनाथी सज्ञान आदि होता नथी श्रमદુષિક રેવા દ્વરા પણ તે દ્રવ્યરાશિ જ્ઞાત દૃષ્ટ, મુન, સ્મૃત અને વિજ્ઞાત જ રહે છે હવે સૂત્રકાર વૈશ્રમજી લેાકપાલના પુત્રસ્થાનીય દવાનુ નિરૂપણું કરે છે- વાણ देविंदस्स देवर'ण' हवेन्द्र देवराम श४ना 'समणस्स महारण्गो' या म्यास श्रमदाना 'इमे देषा महावच्चाऽभिगाया' पुत्रस्थानीय देवा ( तजहा ) नाव प्रभा 'पुण्ण मद्दे' 'भद्र 'मणिमहे' मभिद्र, 'सालिमद्दे' शालिभद्र 'सुमणमद्दे' सुमनोभद्र, 'चक्के' २२४, 'रक्खे' २४, 'पुण्णररखे' सुरक्ष 'सव्वाणे' सदवान ' सध्वज से' सवयश 'सम्वकामे सर्वभ 'समिद्धे' समृद्ध 'भमोहे' अभाष, 'अस' ने अस वे वैश्रम सोडपासनी स्थितिनु निश्चय ४२वा जावे - 'देविंदम्स देवरण्णो सक्कस्स' हवे, देवराय शहना यो
SR No.009313
Book TitleBhagwati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1963
Total Pages1214
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size37 MB
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