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________________ स्थानानने क्षिप्तचिचार्थ जातापर्यन्तासु कामपि निग्रन्थी गृह्णन् वा अवलम्बमानो वा निर्ग्रन्थो जिनाज्ञां नातिक्रामतीति पञ्चसं स्थानम् ॥ छ० २७ ॥ अनन्तरं येषु कारणेषु वर्त्तमानो निर्ग्रन्थो जिनाज्ञां नातिक्रामति तान्युक्तानि, सम्प्रति निर्धन्यविशेषा आचार्योपाध्याया येषु अतिशयेषु वर्तमाना जिनाशी नातिक्रामन्ति तानाह ૪ર " मूलम् - आयरियउवज्झायस्स णं गर्णसि पंच अइसेसा पण्णत्ता, तं जहा - आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्यस्स पाए निगिज्झिय निगिञ्झिय पष्फोडेमाणे वा पमजेमाणे वा णाइकम १| आयरियउवज्झाए तो उवस्सस्स उच्चारपासवणं विगिंचमाणे वा विसोमा वा णाइकमह, २ आयरियउवज्जाए पभू इच्छावेयावडियं करेजा इच्छा णो करेजा ३ | आयरिय उवज्झाए अंतो उवस्सस्स एगरायं वा दुरायं वा गांगी वसमागे जाइकमइ. ४. आयरियउवज्झाएं बाहि उवस्यस्त एगरायं वा ۱ ! दुरायं वा वसमाणे पाइकमइ ५ ॥ सू० २८ ॥ ܕ क्षिप्तचित्त से लेकर अर्थजाता पर्यन्त तककी किसी भी अवस्थामें पतित हुई किमी भी साध्वीको सहारा देनेवाला साधु निर्ग्रन्थ जिनाज्ञाका अतिक्रमण - उल्लंघन करनेवाला नहीं होता है, इस तरह से यह पांचव स्थान है ॥ म्रु० २७ ॥ इस तरहसे जिन कारणोंको लेकर निर्ग्रन्थ जिनाज्ञाका उलङन करनेवाला नहीं होना है, उनको प्रदर्शित कर अब सूत्रकार निर्ग्रन्थ विशेष जो आचार्य और उपाध्याय हैं, वे जिन अतिशयों में वर्तमान होकर जिनाज्ञाका उल्लङ्घन नहीं करते हैं, उनका कथन करते हैं-, J આ રીતે ક્ષિક્ષચિત્તથી લઇને અર્થજાતા પતની કોઈ પણ પરિસ્થિતિમાં મૂકાયેલા સાધ્વીજીને સહારા · દેનાર-શ્રમણુ નિથ જિનાજ્ઞાનો વિાધક गात नथी या प्रास्तु' या पांचभु र समन्वु ॥ सू. २७ ॥ " श्या 'प्राश्नी परिस्थितियां साध्वी ने सहारो हेनार श्रम निर्भन्थ જિનાજ્ઞાનો વિરાધક ગણાતા નથી, એ વાત પ્રકટ કરીને હવે સૂત્રકાર એ વાત પ્રકટ કરે છે કે આચાય અને ઉપાધ્યાય રૂપ નિગ્રંથ વિશેષેા કયા અ તશયાથી યુકત હાવા છતાં પણ જિનાજ્ઞાની અવગણના કરનારા ગણુાતા નથી. -1
SR No.009310
Book TitleSthanang Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages773
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size43 MB
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