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________________ स्थानानने तनं च वंशीमूलकेतनं-वंशीमूलरूपवक्रमित्यर्थः १, तथा-मेदविपाणकेतनं-मेढ:मेपः, तस्य विषाणं-शङ्ग मेढू विषाणं, तच्च तत्केतनं च तथा २, गोमूत्रिकाकेतनं गोमूत्रिका-प्रसिद्धा, तद्रूपं केतनम् ३, अवलेवनिकाकेतनम्-अवलेखनिकापाटयमानवंशशलाकामभृतेः सूक्ष्मतरा ( प्रतन्धी ) त्वक्, तदूपं केतनम् ४। __" एवामेवे"-त्यादि-एवमेव-केतनवदेव, माया-कपायविशेषः, चतुर्विधा 'प्रज्ञप्ता, तद्यथा-वंशीमूलकेतनसमाना-वंशीमूलकेतनसदृशी माया भवति, तत्र तत्सादृश्यं च मायायां तद्वतामनाजवभेदात् । तथाहि-यथा वंशीमूलमतिगुप्तवत्रं भवति, तथा मायाविनां मायाऽपि वक्रवक्रा भवति १, ' यावत् ' वंशीमूलकेतन'समानेत्यारभ्य ' अवलेखनिकाकेतनसमानेतिपर्यन्ता माया वोध्या, एवं च-मेढू शब्द से यहां गृहीत है । बक्र चार कहे गये हैं, जैसे-वंशीमूलकेतन( वांसकी जडरूप वक्रता ) १ मेषविषाणकेतन (मेषसींगरूप चक्रता)२ गोमूत्रिका केतन (गोमूत्रकी रेखारूप वक्रता) ३ और अवलेखनिका केतन (वांसकी शलाका) पेंचको छोलते समय जो उसका ऊपरनीचेका छोलन निकलता है वह निकलते ही चक्र होता है ऐसा जो केतन है वह अवलेखनिका केतन है ४ । जैसे ये केतन चार कहे गये हैं, इसी प्रकार मायारूपकषाय विशेष भी चार कहा गया है। इनमें : एक माया ऐसी होती है जो वंशीमूल केतन जैली होती है । वांसका मूल भाग बहुत अधिक अनार्जवतावाला (वन) होताहै । अतः-अतिगुप्त वक्रतावाला होने से उसकी वक्रता कटती नहीं है, उसी प्रकार मायाचियों की भी जिस माया कटती नहीं है ऐसी वह वक्र वक्रमाया वंशीमूलकेतन जैसी कही गई है। मेदविषाण केनन के सવક વસ્તુઓ કહી છે-જેમકે (૧) વંશમૂલકેતન (વાંસની જડરૂપ વકતા) (२) भेद विषाणु तन (घटाना सी समान १४) (3) गाभूत्रिी तन (ગમનની રેખા રૂપ વકતા) (૪) અવલેખનિકા કેતન (વાંસની સળીઓને છેલતી વખતે તેને જે છેલ પડે છે તે વક જ હોય છે. એવી તે વકતાને અવલેખનિકાકેતન કહે છે. આ કેતનના જેવા ચાર પ્રકાર કહ્યા છે, એવા જ ચાર પ્રકાર માયારૂપ કષાય વિશેષના પણ કહ્યા છે. (१) “ qांस तन समान भायो"-qiसन भूn an भूम २४ અનાર્જવતાવાળે હોય છે. તે કારણે તે અતિગુપ્ત વકતાવાળે હેય છે, તેથી તેની વકતાની ખબર પણ પડતી નથી. એ જ પ્રમાણે માયાવી પુરુષની માયાને જાણી શકાતી નથી એવી તે વક્ર-વફ માયાને વાંસમૂલ કેતન જેવી
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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