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________________ सुंधा टीका. स्था० ४ उ१ सू०१७ सत्यासत्यनिमित्तकपणिधाननिरूपणम् ४९९. ____ " चतुर्विधं सुपणिधान "-मित्यादि-सुप्रणिधानं शोभनपयोगः, चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-मनासुप्रणिधानं-मनसः सुष्ठु प्रयोगा-चित्तस्य , धर्मध्यानादिना सुचारूव्यापरणम् । एव वाकायोपकरणसुप्रणिधानानि वोध्यानि ।। " एवं संजयमणुस्साणवि ” इति-एवम् ईदृशं सुप्रणिधानचतुष्टयम् , संयतमनुष्याणामेव-संयताश्च ते मनुष्याः संयतमनुष्यास्तेपामेव=धृतसंयममनुष्याणामेव मनःप्रभृतिसुमणिधानं भवति नान्येपामित्यर्थः, सुप्रणिधानस्य चारित्रपरिणतिस्वरूपत्वात् । ___“ चउबिहे दुप्पणिहाणे " इत्यादि-दुष्प्रणिधानम् अशोभनप्रयोगः, तच्च. होते हैं । " चतुर्विध सुप्रणिधानम्" इत्यादि शोभन प्रयोग का नाम सुप्रणिधान है यह सुप्रणिधानका मनः सुप्रणिधान आदि चार भेद कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि-चित्त को धर्मध्यान आदि द्वारा सुचारुरूप से व्यापृत करना लगाना, यह मन का सुमणिधान है इसी प्रकार वाक् सुप्रणिधान काय सुप्रणिधान और उपकरण सुप्रणिधान के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। "एवं संजयमणुस्साणवि-" यह सुप्रणिधान चतुष्टय संयतमनुष्यों को (संयतशीलको) ही होताहै, अन्य मनुष्यों को नहीं। क्योंकि-सुप्रणिधान चारित्र परिणतिरूप होता है। "चउविहे दुप्पणिहाणे-" इत्यादि अशोभन प्रयोग का नाम दुष्प्रणिधान है यह-मनोदुष्प्रणिधान आदि भेदों से जो चार प्रकार कहा गया है उसका तात्पर्य ऐसा है कि चित्त को आतं रौद्र आदिरूप से परिणत करना इसका नाम-मनोदुष्प्रणिधान है, इसी प्रकार का कथन, " चतुर्विध सुपणिधानम् " त्या શોભન પ્રયોગનું નામ સુપ્રણિધાન છે, તે સુપ્રણિધાનને પણ મન સુપ્ર. ણિધાન આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે–(૧) મનઃસુપ્રણિધાન-ચિત્તને ધર્મધ્યાન આદિ શુભ પ્રવૃત્તિમાં લીન કરવું તેનું નામ મનઃસુપ્રણિધાન છે. એ જ પ્રમાણે છે વાફસુપ્રણિધાન, કાયસુપ્રણિધાન અને ઉપકરણ સુપ્રણિધાનના અર્થ પણ જાતે જ સમજી શકાય એવા હેવાથી અહીં તેમનું અધિક સ્પષ્ટીકરણ કર્યું નથી, " एवं संजयमणुस्सा वि" मा यार सुप्रणिधाननी सहा सयत (सयभः । શીલ) મનુષ્યમાં જ હોય છે-અન્ય અસંયત મનુષ્યમાં તેમને સદુભાવ હોત નથી, કારણ કે સુપ્રણિધાન ચારિત્ર પરિણતિ રૂપ હોય છે. “चउठिवहे दुप्पणिहाणे "त्यादि सामान प्रयोगनु नाम प्रणिधान छ, તેના મને દુષ્મણિધાન આદિ ચાર ભેદ કહ્યા છે.
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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