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________________ सुमा का स्था० ४ १०१ सू०११ सभेदं मोहविशेषभूतकषायनिरूपणम् ४७१ . "एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " इति-अनेन प्रकारेण अर्थाद यथा क्षेत्रादिकं प्रतीत्य क्रोधोत्पत्तिः कथिता, तथा मान-माया-लोभा अपि क्षेत्रादिकमाश्रित्य समुत्पद्यन्त "इति तैरपि लोभान्तं पदं योजयित्वा वैमानिकानामित्यन्तं तत्तद्दण्डकं पठनीयमित्यर्थः २४ । ___पुनः क्रोधादि चातुर्विध्यं निरूपयति-" चउबिहे कोहे " इत्यादिचतुर्विधः क्रोध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा-अनन्तानुवन्धी क्रोधः-अविद्यमानोऽन्तोऽवधियस्य सोऽनन्तः संसारः, तमनुवघ्नातीत्येवंशीलोऽनन्तानुवन्धी, स क्रोधोऽनन्तानुवन्धी - " एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " जिस प्रकार क्षेत्रादि को आश्रित करके क्रोध की उत्पत्ति हो सकने का कथन किया गया है उसी प्रकार से मान माया और लोभ भी क्षेत्रादिक को आश्रित करके उत्पन्न होते है इसलिये-क्षेत्र को आश्रित करके, वस्तु को आश्रित करके, शरीर को आश्रित करके, और उपधि को आश्रित करके, ऐसे पद उनके साथ जोडकर मान से लेकर लोभ तक की उत्पत्ति हो सकने का कथन कर लेना चाहिये ऐसा यह कथन नारक से लेकर वैमानिक तक के समस्त जीवों के क्रोधादिकों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कर लेना चाहिये । अब सूत्रकार पुनः क्रोधादिकों में चतुर्विधता का कथन इस प्रकार से करते हैं-" चउविहे कोहे" अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि " अविद्यमानोऽवधिर्यस्य सोऽनन्तः"जिसकी अवधि विद्यमान नहीं है वह अनन्त है ऐसा अनन्त संसार है ऐसे संसार का सम्बन्ध करने का जिसे स्व " एवं जाव लोहे वेमाणियाणं " प्रभारी क्षेत्राहि माया सन ક્રોધની ઉત્પત્તિના ચાર કારણેનું કથન કરવામાં આવ્યું છે, એ જ પ્રમાણે માન, માયા અને લેભની ઉત્પત્તિ પણ ક્ષેત્રાદિક ચાર ક રણને લીધે જ થાય છે એમ સમજવું. એટલે કે માન, માયા અને લેભની ઉત્પત્તિના પણ નીચે प्रभाएं यार ४१२0 ४ सपन-(१) ॥२ क्षेत्र३५ ४२, (२) વરૂપ કારણ, (૩) શરીરરૂપ કારણ અને (૪) ઉપધિરૂપ કારણે આ કથન નારકથી લઈને વૈમાનિક પર્યન્તના સમસ્ત જીવોના ક્રોધાદિક કષાયની ઉત્પત્તિના કારણે વિષે ગ્રહણ થવું જોઈએ. હવે સૂત્રકાર કોધાદિકમાં ચતુવિધતાનું કથન બીજી રીતે કરે છે– “घउबिहे कोहे " अपना भी शत ५ यार ४५२ ५ छ (१) मनन्तानुभधा -" अविद्यमानोऽवधिर्यस्य सोऽनन्तः" नी અવધિ વિદ્યમાન નથી તેને અનંત કહે છે. એ અનંત સંસાર છે. એવા
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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