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________________ 1 सुघा टीका स्था० ४ उ०१ सू० ९ ध्यानस्वरूपनिरूपणम् -४३३ धर्म्यम्-धर्मादनपेतं = युक्तं धर्म्य = श्रुतचरणादिधर्मोपेतमित्यर्थः, ध्यानम् शुक्लम् - शोधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं, शुच - शोकं वा क्लमयत्यपनयतीति निरुतया शुक्लं = मोक्षादिफलसाधकं ध्यानम् ४। तत्राss ध्यानं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा-अमनोज्ञसम्मंयोगसम्प्रयुक्तःअनिष्टशब्दादि सम्बन्धजनितः सम्प्रयोगः - सम्बन्धस्तेन सम्प्रयुक्तः - सहितो यः पुरुषस्तस्य यत् " विष्पओगे " - त्यादि - विप्रयोगस्मृतिसमन्यागतं विप्रयोगःअनिष्टशब्दादिवियोगः, तस्य स्मृतिः - चिन्ता विप्रयोगस्मृतिः, तस्याः समन्वागतं = समन्वागमनं - संप्रापणं भवति तत् " चापि " इति वाक्यालङ्कारे एवं सर्वत्र १ परिणामों के निमित्त से होता है । इस कथन द्वारा व्यक्त की गई है। जो ध्यान शुभगग और सदाचरण का पोषक होता है वह धर्मध्यान है, अर्थात् श्रुत और चारित्र धर्म से सहित जो ध्यान है वह धर्मध्यान है मन की अत्यन्त निर्मलता होने पर जो एकाग्रता होती है वह शुक्लध्यान है " शुक्लं शोधयति अष्टप्रकारं कर्ममलं शुचं शोकं वा क्लमयति अपनयति शुक्लम् " जो आठ प्रकार के कर्ममल की शुद्धि कर देता है, अथवा शोक को दूर कर देता है वह शुक्ल है, ऐसा जो ध्यान है वह शुक्लध्यान है यह ध्यान मोक्ष आदि फल का साधक होता है। आर्तध्यान जो चार प्रकार का कहा गया है उसका वाच्यार्थ ऐसा है "अमनोज्ञ संप्रयोग संप्रयुक्तः" इत्यादि, अमनोज्ञ अनिष्ट जो शब्दादिकका संप्रयोग सम्बन्ध इस सम्बन्ध से सम्प्रयुक्त सहित जो पुरुष ऐसे पुरुष को दूर करने के लिये जो मन में एक प्रकार की निश्चलता का आना જે ધ્યાન શુભરાગ અને સદાચરણનું પોષક હાય છે, તે ધ્યાનને ધમ ધ્યાન કહે છે. એટલે કે શ્રુત અને ચ ત્રિધર્માંથી યુક્ત જે ધ્યાન છે તેનું નામ ધધ્યાન છે. મનની અત્યન્ત નિર્મળતાને સદ્દભાવ હાય ત્યારે જે એકાગ્રતા थाय छे तेनुं नाम शुद्धसध्यान छे. “ शुक्ल - शोधयति - अष्टप्रकार कर्ममलं -शुचं शोकं वा क्लमयति- अपनर्यात शुक्लम् " नेना द्वारा आई अरना उभभवनी શુદ્ધિ થાય છે, અથવા જેના દ્વારા શાકને દૂર કરાય છે એવા ધ્યાનનું નામ શુકલધ્યાન છે. તે ધ્યાન મેક્ષ આદિ ફુલને પ્રાપ્ત કરાવનાર છે હવે આ ધ્યાનના ચાર પ્રકાશનું સ્પષ્ટીકરણ કરવામાં આવે છે " अमनोज्ञसप्रयोगसप्रयुक्तः " इत्यादि - अमनोज्ञ ( अनिष्ट-आयुगमता ) शब्दाहिना सप्रयोगथी ( समधथी ) ચુક્ત જે પુરુષ હાય, એવા પુરુષના ચિત્તમાં તે અમનેાસ વસ્તુને દૂર કરવા स ५५
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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