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________________ स्थानानसूत्रे Cl a ८ ' एवं जहा " इत्यादि - एवम् इत्थम् " ऋजुनमैकः ऋजुः " इत्यादिनाऽनन्तरोपदर्शितक्रमेण, यथा येन प्रकारेण परिणतरूपत्वादि नत्र विशेषण - दानेनेत्यर्थः, उन्नत - परिणताभ्यामन्योऽन्यं प्रतिपक्षभूताभ्यां गमः = सदृशवाक्यपद्धतिरूपः पाठो विहितः तथा तेन प्रकारेण अर्थात् परिणत - रूप- मनः- संकल्पप्रज्ञा-दृष्टि - शीलाऽऽचार - व्यवहार - पराक्रमरूपनव विशेषणयोजिताभ्याम्, ऋजु - चक्राभ्यामपि = ऋजुशब्देन चक्रशब्देन चापि भणितव्यः = गमः पठनीयः, स गमः कियान् भणितव्यः १ इत्यवर्धि प्रदर्शयितुमाह - " जाव परकमे " इति, अजुवक्रवृक्षसूत्रादारभ्य त्रयोदशं सूत्रं यावद् गमो भणितव्य इत्यर्थः । - तत्र च ऋजु २ ऋजु परिणत २ ऋजुरूप २ लक्षणानि पट् सूत्राणि वृक्षदृष्टान्त पुरुषदाष्टीन्तिकरूपाणि वोध्यानि, तदतिरिक्तानि सप्त मनःप्रभृतिघटितानि दृष्टान्तरहिहै जो बाहर से शारीरिक चेष्टादि द्वारा कुटिल होता है और भीतर से भी कपट जाल युक्त शठ की तरह कुटिल होता है यह चतुर्थभंग है-४ 61 एवं जहा इत्यादि - इस सूत्र द्वारा अब सूत्रकार यह प्रकट करते हैं कि जिस प्रकार उन्नत और प्रणत सम्बन्धी सूत्रों के साथ उन्नत प्रणत परिणत रूप जोडकर दृष्टान्त और दान्तिक सम्बन्धी छह ६ सूत्र बनाये हैं, तथा इनकी उन्नत प्रणत शब्दों के साथ मन सङ्कल्प प्रज्ञा दृष्टि शीलाचार व्यवहार शब्द जोडकर ७ सूत्र वृक्ष दृष्टान्त रहित करके और बनाये गये हैं, इस प्रकार से ये तेरह सूत्र बनाये गये है । जैसे - उन्नत उन्नत - १ उन्नत प्रणत-२ प्रणत उन्नत-३ और प्रणत प्रणत ४ ये चार भंग वृक्ष सम्बन्धी हैं, यह प्रथम १ सूत्र है, और इसी सूत्र को दान्तिक में उन्नत प्रणत को योजित करके द्वितीय सूत्र पुरुष હાય છે અને અંદરથી પણ કપટ જાળયુક્ત દુનના જેવા કુટિલ જ હાય છે, અથવા તે પહેલાં પણ કુટિલ હાય છે અને પછી પણ કુટિલ જ રહે છે. एवं जहा ” ઈત્યાદિ—આ સૂત્ર દ્વારા હવે સૂત્રકાર એ પ્રકટ કરે છે કે–જેમ ઉન્નત અને પ્રણત વિષયક સૂત્રેાની સાથે ઉન્નત પ્રદ્યુત પરિણત રૂપ જેડીને દૃષ્ટાન્ત કાર્યાંન્તિક સ’બધી ૢ સૂત્રેા બનાવવામાં આવ્યા છે, એ જ प्रमाणे ' उन्नत अद्युत ' शहोनी साथै भन, सहय, अज्ञा, दृष्टि, शीसाथार, વ્યવહાર અને પરાક્રમ, આ સાત પદ જેડીને વૃક્ષના દેર્ટન્ત રહિત ખીજા સાત સુત્રા પણ મનાવવામાં આવ્યાં છે. આ પ્રમાણે કુલ ૧૩ સૂત્ર બનાववासां भाव्यांछे नेमे... (१) उन्नत-उन्नत, (२) उन्नत - प्रद्युत, (3) प्रयुत ઉન્નત અને (૪) પ્રણત-પ્રણત, આ ચાર ભાંગા વૃક્ષને અનુલક્ષીને મનાવ્યા છે. આ રીતે વૃક્ષાના દૃષ્ટાન્તવાળું આ પ્રથમ સૂત્ર છે. 66 ܕܕ כ
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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