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________________ १६ entries वनेत्यर्थः, साऽपि ज्ञायिकाऽज्ञायिका - विचिकित्सा भेदेन त्रिविधा पूर्ववद् व्याख्येया || सू० ८५ ॥ 4 जाणू 'तिज्ञः - विद्वान्, स च ज्ञानाद् भवतीत्युक्तं, ज्ञानं चातीन्द्रियार्थेषु प्रायः शास्त्राद् भवतीति शास्त्रभेदेन तद् भेदानाह - ' तिविहे अंते ' इत्यादि, अन्तः - निर्णयः स त्रिविधः प्रज्ञप्तः, तथाहि - लोकान्तः १, वेदान्तः २, समयान्तः ३ । तत्र-लोकान्तः, अत्र लोकशन्देन लोकशास्त्रं गृह्यते, तथ - अर्थशास्त्रादि, तस्माद् अन्तः - अर्थादिरूपो निर्णय इति लोकान्तः । एवं वेदान्तः समयान्तच विज्ञेयः, आसेवना का नाम पर्यापादना है यह आसेचना भी ज्ञायिका अज्ञायिका और विचिकित्सा के भेद से तीन प्रकार की होती है इनमें जो विषयजन्य अनर्थ को जानकर भी उनका सेवन करता है वह ज्ञायिका पर्यापादना है । तथा - अज्ञान से जो उनका सेवन करता है वह अज्ञायिका पर्यापादना है, और जो संशयवालों की विषयों में सेवन रूप पर्यापादना है वह विचिकित्सा पर्यापादना है || ८५ ॥ 44 जाणु " सि " ज़ नाम विद्वान का है आत्मा ज़ ज्ञान से होता है। यह पहले कहा जा चुका है अतीन्द्रिय पदार्थों में ज्ञान प्रायः शास्त्र से होता है अतः - अब सूत्रकार शास्त्र भेदसे उसके भेदों का कथन करते हैं- " तिविहे अंतो " अन्त नाम निर्णय का है यह निर्णय लोकान्त वेदान्त और समयान्त के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है यहां लोकान्त शब्द से लोक शास्त्र गृहीत हुवा है यह लोकशास्त्र अर्थशा ? , C છતાં પણ તેનું જે સેવન કરવામાં આવતું હાય તેા એવા સેવનને જ્ઞાયિકા પર્યાપાદના ’ કહે છે, જો અજ્ઞાનથી તેનું સેવન કરાતું હાય તે તેને અજ્ઞાયિકા પર્યાપાદના કહે છે. સંશયવાળા જીવાની વિષયેના સેવન રૂપ જે પર્યાપાદના छे तेनुं नाम " विथित्सा पर्यायाहना ” छे. ॥ सू. ८५ ॥ ૮૬ માં સૂત્રના ભાવાથ. जाणु त्ति " " જ્ઞ’ એટલે જાણનાર અથવા વિદ્વાન. જ્ઞાનની પ્રાપ્તિથી જ આત્મા 'ज्ञ' (विद्वान ) थाय छे, भावात પહેલાં પ્રકટ થઈ ચુકી છે. અતીન્દ્રિય પદાર્થોમાં જ્ઞાત પ્રાયઃ શાસ્ત્રો દ્વારા જ પ્રાપ્ત થાય છે. તેથી હવે સૂત્રકાર શાસ્ત્રના ભેદોની અપેક્ષાએ તેનું કથન કરે છે. fafa rat" Self ८८ 'अन्त' भेटले निर्बुथ मा निशुचना शू' ले उद्या छे " सोअन्त, वेदान्त, अने सभयान्त" सर्डी " सोअन्त " यहथी बोडशास्त्र गृहीत थयेस છે. અર્થશાસ્ત્ર આદિને લેાકશાસ્ત્ર કહે છે. તે લેાકશાસ્ત્રને આધારે જે અર્થાકિ
SR No.009308
Book TitleSthanang Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages822
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size47 MB
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