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________________ ६४ स्थानाङ्गसूत्रे पापयोः स्वरूपं निरूपणीयम् । तत्रापि मोक्षस्य पुण्यस्य च शुभस्वरूपतया मोक्षस्वरूपतया मोक्षस्वरूपवर्णनानन्तर पुण्यस्वरूपमाह मूलम्-एगे पुण्णे ॥ ११ ॥ छाया-एकं पुण्यम् ॥ ११ ॥ व्याख्या-'एगे' इत्यादि-- पुण्यं-पुनाति-पवित्रीकरोति आत्मानमिति पुण्यम् । यहा-पुणतीति पुणः, तमहतीति पुण्यम्-शुभकर्म', 'पूनो यण्णुरहस्वश्च ' (उ. ५। १५ ) यण-णुगू हाच । 'पुणकमणि शुभे च इति पुण धातोः ''पगुपधः ' इतिका, तच्च एकम् एकत्वसंख्यावत् । यद्यपि पुण्यं द्विचत्वारिंशद्विधम् , तथाहिजीव का कारण है और न व्यापक ही है इसलिये उसके अभाव में जीव का अभाव नहीं हो सकता है। सू० १०॥ मोक्षस्वरूप का वर्णन करके अब सूत्रकार निरूपणीय पुण्यपाप में से पहिले पुण्य के स्वरूप का वर्णन करते हैं मोक्षस्वरूप के निरूपण के वाद पुग्यपाप इसलिये निरूपणीय हुए हैं कि मोक्ष पुण्यपापके क्षयसे ही प्राप्त होता है इस में भी पहिले जो पुण्यस्वरूप का निरूपण किया गया है वह मोक्ष की तरह शुभ स्वरूप होता है इसलिये मोक्षस्वरूप के वर्णन के बाद पुण्यस्वरूप का वर्णन किया जा रहा है। 'एगे पुण्णे' इत्यादि ॥११॥ मूलार्थ--पुण्य एक है ॥११॥ टीकार्थ--जो आत्मा को पवित्र करता है वह पुण्य है ऐसी पुण्य शब्द की व्युत्पत्ति है यहा-"पुणतीति पुणः तमहतीति पुण्यम् " शुभ નથી અને વ્યાપક પણ નથી તેથી તેના અભાવને લીધે જીવને અભાવ.સંભવી શકતો નથી | સૂટ ૧૦ છે મોક્ષના સ્વરૂપનું નિરૂપણ કરીને હવે સૂત્રકાર પુણ્ય અને પાપનું નિરૂપણ કરે છે. પુણ્ય પાપના ક્ષયથી મોક્ષની પ્રાપ્તિ થાય છે, તેથી મોક્ષનું નિરૂપણ કર્યા પછી પાપપુણ્યનું નિરૂપણ કર્યું છે. પુણ્ય મોક્ષની જેમ શુભસ્વરૂપ હોય છે, તે ४२पुष्यना २१३५नु नि३५५ ५७i ४२वामा मा०यु छ. “एगे पुण्णे'त्यादि સૂત્રાર્થ–પુણ્ય એક છે ! ૧૧ છે ટીકાર્થ-જે આત્માને પવિત્ર કરે છે તે પુણ્ય છે, એવી પુણ્ય શબ્દની વ્યુત્પત્તિ થાય છે. मथा-(पुणतीति पुण' तमहं तीति पुण्यम्) शुम भर्नु नाम पुष्य
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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