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________________ सुधा टीका स्था०३ उ० १ सू० ३ नैरयिकस्वरूपनिरूपणम् "" " एगो व दोव तिनि व, संखमसंखा व एगसमएणं । उववज्जेतेवइया, उच्चता वि एमेव ( देवा ) ॥ १ ॥ छाया - एको वा द्वौ वा त्रयो वा संख्याता वैकसमयेन । उत्पद्यन्ते एतावन्तः, उद्वत्तन्तेऽप्येवमेव (देवाः) ॥ इति ॥ एतदेव नारकपरिमाणं यत् उक्तम्- " संखा पुण सुरवरतुल्ला" छाया(नारकाणां ) संख्या पुनः सुरवरतुल्या, इति । ५६९ चतुर्विंशति दण्डकोक्तानामसुरादीनां कविसंचितादिकमतिदिशन्नाह - ' एवं ' इत्यादि, एवं - नारकवच्छेपाश्चतुर्विंशतिदण्डकोक्ता एकेन्द्रिय-वर्जा वाच्याः, तेषु प्रतिसमयमसंरूपातानामनन्तानां वा अकतिशब्दवाच्यानामेवोत्पत्तिसद्भावात् न त्वेक: ' संख्याता वा' इति ॥ मू० ३ ॥ ३ ( एगो व दो तिष्नि व ) इत्यादि । एक समय में एक, दो, तीन आदि प्रकार से संख्यात और असंख्यात नैरयिक उत्पन्न होते हैं और इतनेही मरते हैं इसी तरहका कथन देवोंके विषय में भी जानना चाहिये यही नारकों का परिणाम है क्यों कि कहा है- “ संख्या पुण सुर वर तुला " कि नारकों की संख्या देवों के तुल्य है अब सूत्रकार चतुर्विंशतिदण्डक में उक्त असुरादिकों के कतिसंचिन आदि को अतिदेश से प्रकट करने के अभिप्राय से कहते हैं" एवं " इत्यादि इसी तरह का कथन यावत् एकेन्द्रियवर्ज वैमानिक देवों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। यहां जो एकेन्द्रिय जीवों को छोड़कर कथन किया गया है उसका कारण ऐसा है कि एकेन्द्रिय जीवों में प्रतिसमय अकतिशब्दवाच्य असंख्यात अथवा अनन्त एकेन्द्रिय " एगो व दोत्र तिन्निव " इत्याहि એક સમયમાં એક, છે અને ત્રણથી લઈને સખ્યાત અને અસખ્યાત પન્તના નારકા ઉત્પન્ન થાય છે, અને એટલાં જ મરે છે. આ પ્રકારનું કથન देवे। विषे पशु समन. "संखा पुण सरवरतुल्ला કહ્યુ' પણ છે કે નારકાની સંખ્યા વેાની સખ્યા ખરાખર છે. હવે સૂત્રકાર ર૪ દડકામાં અસુરકુમારાદિ જે અન્ય જીવેાના સમાવેશ थाय छे, तेमना उतिस त्रित माहि लेहोनुं निश्चय ४रे छे-" एवं " त्याहि. નારકેાના જેવુ` જ કથન એકેન્દ્રિય સિવાયના બાકીના વૈમાનિક પર્યન્તના જીવે વિષે પશુ સમજવું. અહીં એકેન્દ્રિય જીવાને નહીં ગણવાનું કારણ એ છે કે એકેન્દ્રિય જીવેામા પ્રતિ સમય અકતિશબ્દ વાચ્ય અસંખ્યાત અથવા અનંત ७२ थ
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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