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________________ सुधा टीका स्पर्धा० २ ० सं० १९ नारकादीनां शरीरद्वैविध्यनिरूपणम् ३३ असुरकुमारेभ्य आरभ्य यावद् वैमानिकानां तैजसं कार्मकं चेति शरीरद्वयं भवति । 'नेरइयाणं ' इत्यादि-नैरयिकाणां द्वाभ्यां स्थानाभ्यां शरीरोत्पतिर्भवति-रागण द्वेषेण चेति । एवं यावद् वैमानिकानाम् । नेरइयाणं' इत्यादि-नैरयिकाणां द्विस्थाननिर्तितं शरीरं भवति-रागनिर्तितं द्वेपनिर्तितं चेति । एवं यावद् वैमानिकानाम् । 'दो काया' इत्यादि-द्वौ कायौ प्रज्ञप्तौ-त्रसकायः स्थावरकायश्चेति । तत्र सनामकर्मोदयात् त्रस्यन्तीति त्रसाः, तेषां काया राशिस्त्रसकायः । स्थावरनामकर्मोदयात् तिष्ठन्तीत्येवं शीलाः स्थावराः, तेषां काया समृहः स्थावरकायः । 'तसकाए' इत्यादि-त्रसकायो द्विविधः-भवसिद्धिकः अभवसिद्धिकश्चेति । एवं स्थावरकायोऽपि ।। सु० १९॥ और दूसरा कार्मणशरीर इसी तरह से विग्रहगति समोपन्नक भवनपति से लेकर वैमानिक तक के जीवों को भी ये दो ही-तैजस और कार्मण शरीर ही होते हैं "नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं" इत्यादि-नैरयिक जीवों के शरीर की उत्पत्ति दो स्थानों द्वारा होती है एक राग के द्वारा और दूसरे द्वेष के द्वारा इसी तरह से शरीरोत्पत्ति के विषय का कथन वैमा. निक तक के जीवों का भी कर लेना चाहिये काय दो प्रकार कहा गया है एक त्रसकाय और दूसरा स्थावरकाय सनामकर्म के उदय से जो अपनी इच्छा से चलते फिरते हैं डरते हैं भागते हैं वे सब सजीव हैं इनकी जो राशि है वह उसकाय है स्थावर नामकर्म के उदय से जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ जा नहीं सकते हैं एक ही जगह स्थिर रहते हैं वे स्थावर हैं इन स्थावरों का जो समूह है वह स्थावरकाय है કામણ. એ જ પ્રમાણે વિગ્રહગતિ સમાપન્નક ભવનપતિથી લઈને વૈમાનિક પર્ય નના જીમાં પણ એ બે શરીરને જ (તૈજસ અને કામણ શરીરને જ) સદ્દભાવ હોય છે. __" नेरइयाणं दोहिं ठाणेहि " त्याह-२४ wali शरीरनी उत्पत्ति में थाना (२) द्वारा थाय छ-(१) (२। मने (२) द्वेषद्वारा. शरी३ત્પત્તિને અનુલક્ષીને વૈમાનિક પર્યન્તના જી વિશે પણ આ પ્રકારનું કથન थ नये. यन। मे १२ छ-(१) सय भने (२) स्था१२४य. स નામકર્મના ઉદયથી જે પિતાની ઈચ્છાથી હરે ફરે છે, ડરે છે અને ભાગે છે, તે જીવને ત્રસ જી કહે છે એવાં જીની રાશિ (સમૂહ) ને ત્રસકાય કહે છે. સ્થાવર નામકર્મના ઉદયથી જે છો એક જગ્યાએથી બીજી જગ્યા જઈ શકતા નથી, પણ એક જ જગ્યાએ સ્થિર રહે છે, એવાં જેને સ્થાવર
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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