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________________ २०३ मुघा टोका स्था०२ उ०१ मु०४ मियादीनां हिचनिश्पणम पुनग्न्यथा क्रियाया वैविध्यमाह-दो फिरियाओ' इत्यादि । ३ क्रिय प्रनप्ते । तद्यथा-दृष्टिका, पृष्टिका चेति । दृष्टं-दर्शन, वस्तु वा कारगत्वेन यस्यामस्ति, सा दृष्टिका । दर्शनार्थ या गतिक्रिया सा दृष्टिका । यद्वा-दिट्टिया' इत्यस्य दृष्टिजा इतिच्छाया । दृऐर्जाता दृप्टिना दर्शनाद् यः कर्मवन्धरूपी व्यापारः सा दृप्टिजेत्यर्थः । तथा-' पृप्टिका' इति । पृष्टं-प्रश्नः, वस्तु या कारणत्वेन यस्यमस्ति सा पृप्टिका । यहा-'पुट्टिया' इत्यस्य 'पृष्टिना' इतिच्छाया। पृष्टि:-पृच्छा, ततो जाता पृष्टिजा-सायद्यमश्वजनिनो व्यापारः । तत्र-प्टिका क्रिया द्विविधा-जीव दृप्टिका, अजीवदृष्टिका चेति । अश्वादिदर्शनार्थं गच्छतो क्रिया में इस प्रकार से भी द्विविधता आती है-एक प्टि को लेकर और दूसरी दृष्टि को लेकर, जो क्रिया होती है वह दृमिटका क्रिया है और प्रष्टि को लेकर जो क्रिया होती है वह पृष्टि का क्रिया है दृष्ट दर्शन अथवा वस्तु जिस क्रिया में कारणाप से है वह दृष्टिका क्रिया है दर्शन के लिये जो गति क्रिया होती है वह दृष्टिका है अथवा "दिहिया" की छाया" दृष्टिजा" भी हो सकती है दर्शन से देखने से जो कर्मरन्धरस्प व्यापार होता है वह दृष्टिजा किया है पृष्टिका प्रश्न अथवा वस्तु कारण रूप से जिस क्रिया में होता है वह पृष्टिका क्रिया है अथवा-"पुट्टिया" इसकी संस्कृत छाया "पृष्टिजा" पसी भी होती है पृष्टि का अर्थ पृच्छा है सावध प्रश्न से जनित व्यापार से जो कर्मबन्ध होता है वह पृष्ठिजा क्रिया है दृष्टिका क्रिया दो प्रकार ધતા સંભવી શકે છે–એક દૃષ્ટિની અપેક્ષા અને બીજી પૃષ્ટિથી અપિકાએ. દૃષ્ટિની અપેક્ષાએ જે કિયા થાય છે તેને દૃષ્ટિકા કિયા કહે છે અને પૃષ્ટિની અપેક્ષાએ જે ક્રિયા થાય છે તેને પૃષ્ટિકા કિયા કહે છે પ્રદર્શન અથવા વસ્તુના દર્શાનરૂપ કિયા જેમાં કારણરૂપ હોય છે, તે ક્રિયાને ટિકા કિયા કહે છે. દર્શનને માટે જે પ્રતિક્રિયા તે થાય છે તે દૃષ્ટિ गया " विट्रिया " नी छाया " दृष्टिजा" पाय श. નથી અથવા દેખવા રૂપ કિયાથી જે કર્મબ વ ૩૫ વ્યાપાર થાય છે તેને દુષ્ટિજ ક્રિયા કહે . પૃષ્ટિ એટલે પ્ર, પ્રશ્ન અથવા વસ્તુ જે ક્રિયામાં २४३५ सय, ते याने लिहिया ४४ भय “पुड़िया " ! ५. २२ ७." पृष्टिजा" ५y य . छ. पृष्टि रेट ५ स.१५ પ્રી જનિત વ્યાપાર દ્વારા જે બંધ પ વ્યાપાર થાય છે તેને પ્રતિ ક્રિો કહે છે. દષ્ટિકા કિ બે પ્રકારની હોય છે (1) કવષ્ટિક અને (ર)
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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