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________________ सुधा टीका स्था० १ ० १ सू० ५२ नारकादीनां वर्गणानिरूपणम् १६९ योगित्वं च प्राप्नोति, अनोऽगम्यते - 'योगपरिणामो लेय्या' इति । स पुनर्योगः- शरीरनामकर्मपरिणतिविशेषः । उक्त हि 1 " कर्महि कार्मणस्य कारणमन्येषां च शरीराणाम् " उनि । तस्मादौदारिका दिशरीरयुक्तग्यात्मनो वीर्यपरिणतिविशेषः काययोगः । तथा औदारिक क्रियाहारकमरी व्यापाराहतवाद्रव्यममूहसाचिव्याद वो जीवव्यापारः न चाग्योगः | तथा औदारिकादि शरीरव्यापाराहतमनोद्रव्यसमूहसाचिव्याद्यो जीवव्यापारः स मनोयोग इति । ततो यथेत्र कायादिकरणयुक्तस्यात्मनो वीर्यपरिणतिर्योग उच्यते तथैव लेश्यापीति । केचित्तु -' कर्मनिस्यन्द्रो देश्या' इति ब्रुवन्ति । सा च द्रव्यवह अयोगी अवस्था को और अलेश्यावस्था को प्राप्त करता है इससे जाना जाता है कि योगपरिणाम रूप लेश्या है तथा योग शरीर नाम कर्म की परिणति विशेष रूप इस प्रकार से है-" कर्ज हि कार्मणस्य कारणमन्येशं च शरीराणाम् " कर्ज कार्मणशरीर का और औदारिक आदि शरीरों का कारण है इस कथन से यही बात जानी जाती है कि औदारिकादि शरीर युक्त आत्मा का जो वीर्य परिणाम विशेष रूप योग होता है वह काययोग है तथा औदारिक वैक्रिय एवं आहारक शरीर के व्यापार से आहृत वाग्यद्रव्यसमूह की सहायता से जो जीव का व्यापार होना है वह वारयोग है तथा औदारिकादि शरीर के व्यापार से आहत मनोद्रव्यसमूह की सहायता से जो जीव का व्यापार होता है वह मनोयोग है तो जिस प्रकार से कायादि करणयुक्त आत्मा को वीर्य • परिणतिरूप योग होता है उसी प्रकार से योगपरिणतिरूप लेकमा भी होती है कितने जन "कर्मनिस्यन्दो लेल्या " इसके अनुसार ऐसा भी તેથી એ વાત સિદ્ધ થાય છે કે લેશ્યા ચૈાગપરિણામ રૂપ છે. તથા ચેત્ર शरीर नाम अर्मनी परिशुति विशेष सा रीते है-" कर्म हि कार्मणत्य कारणमन्येषां च शरीराणाम् " धर्मीय शरीरसुं मने मोहारि महि શરીરનુ કારણ છે. આ કથનથી એ વાત જાણી શકાય છે કે ઔદાકિાક શરીરયુકત આત્માના જે વી પરિણાા વિશેષરૂપ ચેગ ડ્રાય છે, તે કાયયેગ हे. तथा मोहारिड, पडिय अने आहार शरीरना व्यापारी शाईन ( येथ થામાં આવેલ ) વાગ્દસમૂહની સહાયતાથી જીવની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તેને વાગ્યેાગ કહે છે. તથા ઔદારિયાદ્રિ શીગ્ના વ્યાપાથી અન્ નદ્રશ્ય સમૃðની સહાયતાથી જીવની જે પ્રવૃત્તિ ચાલે છે તેને મનેપેલ કહે છે પ્રારે કાયાદિયુક્ત આત્માની થીપનિ તિરૂપ ચેત્ર તૈય છે, એજ પ્રકારે योगपरिसुतिय बेश्या होय है. "देवा" घ :
SR No.009307
Book TitleSthanang Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages706
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size41 MB
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