SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 586
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ انه सूत्रताको सत्संयमयुक्तः, 'वोसहकाए' व्युत्सृष्टकायः निष्प्रतिकमतया परित्यक्तकायममत्वः 'समणे ति वच्चे' श्रमण इति वाच्यः-पूर्वोक्तसर्वगुणविशिष्टः यः सः-श्रमणतया चाच्यो भवतीति भावः ॥भू०४॥ ___ माइन शब्दस्य यत् प्रवृत्तिनिमित्तं कथितं तस्यानुवृत्तिः श्रमणेऽपि समधिगतम् तद्वदिहापि, माहनशब्दरय यत् पापाद्विरत्यादिकं प्रतिपादितं तत्सर्वमेव भिक्षुशब्देपि संयोजनीयम्-इत्याशयेन प्रतिपाद्यते 'एत्य वि' इत्यादि। ___ मूलम् एत्थ विभिक्खू अणुन्नए विगीए नामए दंते दविए वोसटुकाए संविधुणीय विख्वरूवे परिसहोवसरगे अज्झप्पजोग सुद्धादाणे उबटिए ठियप्पा संखाए परदत्तभोई भिक्खू त्ति वच्चे।सू.५। छाया-अनापि भिक्षुरनुन्नतो विनीतो नामको दान्तो द्रविको व्युत्सृष्टकायः संविधूय विरूपरूपान् परीपहोपसर्गान अध्यात्मयोगशुद्धादानः उपस्थितः स्थितात्मा संख्याय परदत्तमोजी मिक्षुरिति वाच्यः ॥५॥ काय मुनि श्रमण' शब्द से कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि इन गुणों __ और पूर्वोक्त गुणों से युक्त मुनि 'श्रमण' कहलाता है ॥४॥ ___ 'माहन' शब्द का जो प्रवृत्ति निमित्त पहले कहा चुका है, अर्थात् जिन गुणों के कारण 'माहन' पद की वाच्यता निरूपित की गई है, उनका 'श्रमण' में भी होना बतलाया गया है। आशय यह है कि जैसे माहन के गुण श्रमण में होना आवश्यक है, उसी प्रकार श्रमण के समस्त गुण 'भिक्षु' में भी होने चाहिए। इस आशय से आगे कहते हैं 'एस्थ वि' इत्यादि। કારણથી દૂર થઈ જાય, એવા દાન, દ્રવિક અને યુસૂટકાય મુનિ “શ્રમણશબદથી કહેવાય છે. તાત્પર્ય એ છે કે–આ ગુણે અને પૂર્વોક્ત ગુણેથી યુક્ત મુનિ શ્રમણ वाय छे. ॥४॥ 'माइन' शहना प्रवृत्ति निमित्त पडai ye छ. अर्थात २ ગુને કારણે “સાહન પદનું વાચ્યપણું નિરૂપિત કરવામાં આવેલ છે, તે ગુણે શ્રમણમાં પણ હેવાનું કહેલ છે. કહેવાનો આશય એ છે કે-જેમ માહનના ગુણે “શ્રમણમાં હોવાનું જરૂરી છે, એ જ પ્રમાણે ચપણના સઘળા ગુણે “ભિક્ષુ માં પણ લેવા જોઈએ. એ આશયથી આગળ કહે છે, "एत्य वि' त्यादि
SR No.009305
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages596
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy