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सूत्रकृताङ्गखत्रे अन्धयायः - (अहा वुइयाई) ययोक्तानि-तीर्थकृटुक्ताचाराङ्गादिमत्राणि 'मुसि. क्खएज्जा' सुशिक्षेत-आसेवनशिक्षया से वेत, अन्ये गस्तयैव प्रतिपादयेच्च एवम्-'जइज्ज' यतेत-आगमाभ्यासाय प्रयत्न कुर्वीत (या) च तथा (गाइवेल) नातिवेलम्-कालिकोत्कालिकागमाऽध्ययनमर्यादामुल्लय (न वएडा) न वदेव
पुन: उपदेशविधि कहते हैं-'अहा वुझ्याइ' इत्यादि ।
शब्दार्थ-अहा वुझ्याई-योक्तानि' तीर्थ कर प्रतिपादित आचाराङ्ग आदि सूत्रों को 'स्सुलिखएज्जी-सुशिक्षे' अच्छीतरह सीखे नया 'जइ. ज्जया-यतेन' आगमके अल्पाल का प्रयत्न करे 'णाहवेलं-नारिवलं' मर्यादा का उल्लंघन कर के 'न बरजजा-न बदेत' चाणी म कहे 'से-सः' ऐसा करने वाला साधु 'दिद्विमं-दृष्टि शन्' सम्यक ज्ञानवाला दिहिदृष्टिम्' सम्प्रदर्शन को 'ण लसएन्जा-ल लूप येत' दषित न करे अर्थात् जिनवचन विरुद्ध प्ररूपणा न करे 'ले-सा' ऐसा मुनि 'तं-तम्' सर्वज्ञ कथित 'समाहि-समाधि लम्बज्ञान दर्शन को 'लासि-मापितुम्' प्ररूपणा करने को 'जाणह-जानाति' जानते हैं ।।२।। ___अन्वधार्थ-साधु पुरुष तीर्थ कर प्रतिपादित आचाराङ्ग आदि सूत्रों का सम्यक् प्रकार से ग्रहण आश्लेबन शिक्षा द्वारा सेवन करे और दसरे को वैसे ही कहे एवं आगम का अभ्यास के लिये प्रयत्न करे ।
शथी ५g अपडेशन विधि सतावतi सूत्र२ . छे -'अहा बुइ. याइ' त्यहि.
Avat - अहा बुइयाई- यथोक्तानि' तीय°४२ प्रतिपाति मायारा विशेष सूत्रीने 'सुसिमक्खएज्जा-सुशिक्षयेत' सारी रीते शीणे त 'जइज्जया-यतेत' भासमना २५याने प्रयत्न ४रे ‘णाइवेल-नातिवेलम्' माहानु SAधन ४शन 'न वएज्जा-न वदेत'
या न ४२ 'से-सः' को प्रमाणु पतना। साधु 'दिट्ठिमं-दृष्टिमान्' सभ्य ज्ञानवाणी 'दिदि-दृष्टिम्' सम्५५
शनने 'ण लूसएज्जा-न लूपयेत्' होष युत न ४३ अर्थात् नयनथा वि३६ ५३५६४२ 'से-सः' । मुनि 'तं-तम्' सर्वज्ञ वास थित 'खमाहि-समाधिम्' सभ्य ज्ञान प्रशनने 'भासिउ'-मापितुम् प्र३५।। ४२वाने 'जाणइ-जानाति' पणे छे. ॥२५॥
અન્વયાર્થ–સાધુ પુરૂષ તીર્થંકર પ્રતિપાદિત આચારાંગ આદિ સૂત્રોનું સારી રીતે ગ્રહણ આસેવન શિક્ષા દ્વારા સેવન કરે અને બીજાઓને એજ રીતે કહે તથા આગમના અભ્યાસ માટે પ્રયત્ન કરે પરંતુ કાલિક ઉત્કાલિક