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________________ सूत्रकृताचे एतादृशक्लेशानां सहनं सम्यगज्ञानिनां गुणायैव भवति, न दोषाय । तदुक्तम्- 41 }} ' 12 #N ५०४" 11 } }, 1 मानका क्षुत्प्रभवं कदन्नमशनं शीतोष्णयोः पात्रता, पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मधास्तले केवले । एतान्येवं गृहे वहन्त्यवनति तान्युन्नति संयमे, दीपांश्चापि गुणा भवन्ति हि नृणां येोग्ये पदे योजिताः ||२|| करते । कहा भी हैं - ' क्षान्तं न क्षमया' इत्यादि । 15818 17 * P 1 In * 'क्षमा तो की' परन्तु क्षमाधर्मके कारण नहीं की, गृह में होने वा सुखका त्याग तो किया, परन्तु सन्तोष से प्रेरित होकर नहीं, दुस्सह सर्दी गर्मी और वायुके क्लेगतो सहन किए, किन्तु तपश्चरण नहीं किया, श्वास. रोक कर रातदिन धनका ध्यान तो किया, परन्तु उत्तम तत्त्वका चिन्तन नहीं किया, इस प्रकार आश्चर्य हैं कि इन ( अज्ञानी) सुखाभिलापियोंने कार्य तो सव वही किये परन्तु उन्हीं कार्यों से ज्ञानियों को जो फल प्राप्त होते हैं, उनसे ये वंचित रहे? 1 # इस प्रकार के क्लेशों का सहन सम्यग्ज्ञानियों के लिए लाभप्रद ही होता है, हानि जनक नहीं । कहा भी है- " काय क्षुत्प्रभवं कदनमगनं " इत्यादि । + t 1 'भूख से उत्पन्न होने वाली शारीरिक कृशता कुत्सित ( निरस ) अभ का भोजन, शीत और' उष्ण का सहन, केशों का रूखापन, विस्तररहित 7 ΕΙ 18 1 L शता, नथी, उधु पालु छे, हे 'क्षान्त न श्रमया' इत्यादि- 4. 1, ક્ષમા તેા કરી પરન્તુ ક્ષમાધર્મને કારણે ન કરી, ધરમા મળતા સુખના ત્યાગ र्थ्यो, परन्तु सतोषथी प्रेराधनेन य - અસહ્ય ઠંડી, ગરમી અને વાયુના કલેશે સહન કર્યાં, પરન્તુ તપશ્ચરણુંને નિમિત્તે તેને સહુ ન કર્યાં, શ્વાસ રોકીને ખલકુલ આરામ કર્યા વિના ધનને માટે રત્રિ દિવસ ધ્યાન તા ધયુ`, પરન્તુ ઉત્તમ તત્ત્વનું ચિન્તન ન કર્યું, આ પ્રકારની આ બધી વાત એવી मीश्चर्यानछे ! मा ( अज्ञानी ) सुणालिसापीमा अर्य तो भेट ( ज्ञानीमोना नेवां ) परन्तु भर्यो द्वारा 'ज्ञानीगोने ने इसनी प्राप्ति थाय छे, ते इथी सो'. अज्ञानीओ। तो वयित रह्या! " A 2-2 । આ પ્રકારના કષ્ટો ( પરીષહે' ) સહન કરવાથી જ્ઞાની જેનેાને તેા લાભ જ થાય છે કાઈ. यात्रु हानि थती नथी उपाछे " काय क्षुत्प्रभव कदन्नमर्शन " इत्यादि 14 ।। ભૂખથી ઉત્પન્ન થતી શારીરિક કૃશતા, કુત્સિત (નીરસ)' અન્નના આહાર શીત अमे 'गश्भीने''सडेन '‘२वी शोनुं इषधांशु यांगरने लोवे भूतस' पर शयन,
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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