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________________ सूत्रकृताङ्गसूत्रे मूलकर्म -- मूलमिव मूलं भववृक्षमूलकारणं सावद्यक्रियारूपम्, गर्भस्तम्भन--गर्भाधान--गर्भपात - गर्भशातन - गर्भवर्धनरूपम् तत्प्रदर्शनम् । दशग्रहणैपणादोपाश्चेत्थम् - ४२२ “संकिय १--मक्खिय २ निक्खित्तं ३ पिहिय४ साहारिय५ दायगु६म्मीसे७ अपरिणत लित्त९ छड्डिय२०, एसणदोसा दस हवंति ॥ १ ॥ छाया शङ्कितम् १ अक्षितम् २ निक्षिप्तम् ३ पिहितं ४ संहतम् ५ दायकम्६ उन्मिश्रम्७ अपरिणतम् ८ लिप्तम् ९ छर्दितम् १० एपणादोपा दश भवन्ति ॥ | १ || तत्र -- शङ्कितम् - आधाकर्मादिदोपसम्भावनम् १ । प्रक्षितम्-- सचित पृथिवीजलादिना देयवस्तु यस्मिन् देयं वस्तु विद्यते तत्पात्रं, दातुर्हस्तादिवागुण्ठितं भवेत्तदा प्रक्षितं कथ्यते २ । निक्षिप्तम् - सचित्तोपरिदेयवस्तुनः स्थापनम्, (१६) मूलकर्म - जो संसार वृक्षके मूलके समान हो, ऐसे गर्भस्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात, गर्भशातन, गर्भवर्धनरूप पापव्यापार को मूलकर्म कहते हैं उसका प्रदर्शन करना । अर्थात् मूलकर्म करके, भिक्षा प्राप्त करना । ग्रहणैषणा के दस दोप इस प्रकार हैं ( १ ) शंकित (२) म्रक्षित (३) निक्षिप्त (४) पिहित (५) संहृत (६) दायक (७) उन्मिश्र (८) अपरिगत ( ९ ) लिप्स और (१०) छर्दित । इनका स्वरूप इस प्रकार है-शंकित लेनेवाले देनेवाले दोनोंको जिस आहार में संदेह हो । (२) म्रक्षित - देयवस्तु - जिसमें देयवस्तू हो वह पात्र अथवा दाता का हाथ आदि सचित्त पृथ्वी या जल आदि से भरा हो । (३) निक्षिप्त-देयवस्तु किसी सचित्त वस्तु पर रक्खी हो अथवा सचित्तवस्तु (१६) भूटाम्भ-जल स्तन, गर्भाधान, गर्भपात, गर्ल शासन भने गर्भवर्धन ३५ સંસાર' વ્રુક્ષના 'મૂળસમાન પ્રવૃત્તિને મૂળક કહે છે. 'આ મૂલક'નું પ્રદર્શન કરીને ભિક્ષા પ્રાપ્ત કરવાથી દોષ લાગે છે. . श्रद्धषैषाथा-सेवाना हस होषो नीचे प्रमाणे छे - (१) शति, (२) भ्रंक्षित, (3) निक्षिप्स, (४) पिडित, (च) स ंहृत, (९) हाय४, (७) उन्मिश्र, (८) अपरियंत, (E) सिस भने (१०) સ્મૃતિ. તેમનું સ્વરૂપ આ પ્રકારનું છે. (१) शांति-ने भाडारनी निर्दोषता विषे बेनार हेनारने शंभ होय, ते महारने शक्ति महार हे छे!!' (२) भ्रक्षित-प्रधान 'श्वानी वस्तु, ते वस्तु भरेतु पात्र अथवा हाताना हाथ आहि માટી થવા જળ આદિ વડે ખરડાયેલ હાય, તે તે વસ્તુ અક્ષિત · દોષયુક્ત ગણાય છે (૩) નિક્ષિપ્ત–દેય વસ્તુને કોઇ સચિત્ત વસ્તુ પર મૂકી હાય, અથવા સચિત્ત વસ્તુને
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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