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________________ समर्थ बोधिनी टीका प्र. अ. १ उ ३ मिध्यादृष्टिनामाचार दोपनिरूपणम् ३४७ अन्वयार्थ: 'जं किंचि उ' यत्किञ्चित्तु स्वल्पमपि न तु प्रचुरं तत् पूइकडं पूतिकृ तम् आधाकर्माद्याहारसिक्थेनापि संमिश्रं न तु साक्षादाधाकर्म तदपि न स्वकृतम् अपि तु सड्डीमागंतु मीहियं श्रद्धावता आगन्तुकेभ्य ईहितम्, श्रद्धा वता मुनिभिक्षादानश्रद्धायुक्तेन केनापि श्रावकेण आगन्तुकेभ्यो मुनिभ्यः आगच्छन् मुनिनिमित्तम् ईहितं चेष्टितं सम्पादितमित्यर्थः तच्च तादृशमाहारजातं यदि सहस्संतरियं सहस्रान्तरितम् - आगन्तुकमुनिनिमित्तमाश्रित्य निप्पादितस्याधाकर्माहारस्य सिक्थेन अन्यान्यसंसिलनेन सहस्रतममाहारजातं समिश्रितं , शब्दार्थ - 'जं किचि उ — यत् किंचित्तु' थोडासाभी 'पुइकडं - पूतिकृतम्' आधाकर्मादि कणसे मिश्रित आहार अशुद्ध है 'सड्ढी - श्रद्धावता ' श्रद्धावान् पुरुपने 'आगंतुमीहियं - आगन्तुकेभ्य ईहितम् ' आनेवाले सुनियों के लिये बनाया है ऐसा आहारको 'सहस्संतरियं सहखान्तरितम्' हजार घरका अन्तरदेकर भी 'भुंजे – भुञ्जीत' खाताहै तो वह 'द्रपक्खं चेव - द्विपक्षं चैव' गृहस्थ और साधु दोनों पक्षका 'सेवइ - - सेवते' सेवन करता है ॥ १ ॥ -अन्वयार्थ जो अत्यन्त अल्प भी आहार पूतिकृत है अर्थात् आधाकर्मी अहार के एक सीथ से भी मिश्रित है - जो साक्षात् आधाकर्मी नहीं है और जो मुनि को भिक्षा देने की श्रद्धा वाले किसी गृहस्थ ने दूसरे आगन्तुक मुनियो के निमित्त बताया है, ऐसा आहार की एक सीथमी यदि सहस्रान्तरित हो अर्थात् एक से दूसरे के पास, दूसरे से तीसरे के पास अर्थात् हजार घरों के अन्दर चला गया हो, फिर भी मुनि यदि उसका उपभोग करता है तोवह शाहार्थ - 'ज किंचि उ-यत् किचित्तु' थोडु पशु 'पुईकड - पूतिकृतम्' आधाभहि महारनी सीथथी पशु मिश्र होय तेथे गाहार अशुद्ध छे 'सट्ठी - श्रद्धावता' श्रद्धावान् पुरुषने ‘आग तुमीहिय - आगन्तुकेभ्य ईहितम्' आववा वाजा सुनियोने भाटे मनावेस होय मेवा खाहारतु 'सहस्स तरिय - सहस्रन्तरितम्' हुन्नर धरनु तर थयुहोय तो 'भुजे भुञ्जित' गाय छे, तो ते 'दुपक्ख चेव - द्विपक्ष चैव' गृहस्थी भने साधु मन्ने यानु 'सेवई-सेवते' सेवन ४२ छे ॥ १ ॥ અન્વયા જે આહારના અલ્પમા અલ્પ ભાગ પણ પૂતિકૃત હાય - એટલે કે આધાકમ આદિ દોષયુક્ત આહારના એક કણથી પણ મિશ્રિત હેાય, જે આહાર સાક્ષત્ આધાકમી ન હેાય અને જે આહાર કોઇ અન્ય મુનિઓને નિમિત્તે કોઇ શ્રદ્ધળુ ગૃહસ્થ વડે તૈયાર કરાવવામાં આવ્યા હાય, એવા આહાર નીસીયમાત્ર પણ સહસ્રાન્તરિત હાય (એક ઘારથી ખીજા ઘરે. ખીજાથી ત્રીજા ઘરે એમ હજારમા ઘરે ચાલ્યા ગયા હાય ) છતા પણ કોઈ મુનિ જે તેના
SR No.009303
Book TitleSutrakrutanga Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages701
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size38 MB
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