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________________ २४२ आचाराङ्गसूत्रे एवं 'भोगे रोगः' इति प्रोक्तम् । अथ च भोगसाधनं धनमपि नश्वरं ततः कि विधेयमिति दर्शयति-'आस् च ' इत्यादि। सद्भाव में जीव सांसारिक मौज-मजा भोगने में अपनी शक्तिअनुसार कसर नहीं रखते; किन्तु भोग सदा दुखदायी होते हैं । कहा भी है भोग वुरे भव रोग बढ़ावें, बैरी हैं जग जी के। वेरस हीय विपाक समय अति, सेवत लागै नीके ॥ वज्र अगनि विष से विषधर से, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतन के चोर चपल अति, दुर्गतिपंथसहाई ॥ मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानै ॥ ज्यों ज्यों भोग लॅजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डकै, लहर जहर की आवै ॥ उन भोगों की आशा से बाल अज्ञानी जीव प्राणातिपातादिक अनेक प्रकार के क्रूर कर्मों को करता हुआ विपरीतपने को प्राप्त होता है, अर्थात् मोक्षमार्ग से विमुख हो जाता है ॥ सू० २॥ इस प्रकार जब भोग में रोग है और भोग का साधनभूतधन विनश्वर है तब क्या करना चाहिये? इसका प्रत्युत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं-"आसं च" इत्यादि। જીવ સાંસારિક મોજ-મજા ભોગવવામાં પોતાની શક્તિ અનુસાર કસર રાખતા નથી પણ ભોગ સદા દુખદાયી થાય છે કહ્યું પણ છે– " भोग बुरे भव रोग वढावे, वैरी है जगजीके । वेरस होय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके ॥ वज्र अगनि विपसे विषधर से, ये अधिके दुखदाई । धर्मरतनके चोर चपल अति, दुर्गतिपथसहाई ॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सव कंचन माने ॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मनवांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंक, लहर जहर की आवै ॥" આવા ભેગોની આશાથી બાલ અજ્ઞાની જીવ પ્રાણાતિપાતાદિક અનેક પ્રકારનાં કૂર કર્મો કરીને વિપરીતપણાને પ્રાપ્ત થાય છે, અર્થાત્ મોક્ષમાર્ગથી વિમુખ થાય છે. છે સૂટ ૨ ! આ પ્રકારે જ્યારે ભોગમાં રોગ છે. અને ભોગના સાધનભૂત ધન વિનશ્વર છે. त्यारे शं ४२jनध्य ? नो प्रत्युत्तर मापता सूत्रा२ ४३ 2-"आसं च" त्यादि.
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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