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________________ १५९ अध्य० २. उ. २ अथवा 'आशंसायै' आशंसा चालभ्यलाभस्पृहा तस्यै तदर्थं दण्डं समारभते । ममैतत् परुत्परारि परलोके वा भविष्यतीत्याशया दण्डं समाददातीति तात्पर्यम्।।५.४॥ एवं कटुकविपाकं दण्डसमादानं सम्यगवबुध्य यत्कर्तव्यं तदाह-'तं परिणाय' इत्यादि। ___ मूलम्-तं परिणाय मेहावी नेव सयं एएहिं कज्जेहिं दंडं लमारंभिज्जा, नेव अन्नं एएहिंकज्जेहिं दंडं समारंभिज्जाविजा, एएहिं कज्जेहिं दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणिज्जा, एस लग्गे आरिएहिं पवेइए, जहेत्थ कुसले नोवलिंपिज्जासित्तिबोम। सू०५॥ __ छाया-तत्परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयमेतैः कार्यदण्डं समारभेत, नैवान्यम् एतैः कार्यदण्डं समारम्भयेत् , एतैः कार्यदण्ड समारभमाणानप्यन्यान्न समनुजानीयात, एष माग आयैः प्रवेदितः, यथाऽत्र कुशलो नोपलिम्पेः, इति ब्रवीमि ॥ मू०५॥ झता है कि-'पापों से मेरी मुक्ति हो जायगी-मैं निष्कलंक बन स्वर्गादि लाभ कर लूंगा'-ऐसा मानकर वह पारलौकिक कार्य करने के लिये भी छहकाय का आरंभ करता है । इस प्रकार के सावध व्यापारों से नानाविध दुर्गतियों को देने वाले तथा अनेक जन्म जन्मान्तरों में भी जो न नष्ट हो सके ऐसे पाप का ही वह अर्जन करता है। 'आशंसायै' इस पद से यह बात सत्रकार सूचित करते हैं कि-वह अलभ्यवस्तु को पाने की इच्छा से भी दण्ड का समारंभ करता है "यह वस्तु मेरे पास नहीं है, आत्मबलादि कार्यों के करने से वह मुझे आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसों मिल जावेगी, यदि यहां न भी मिलेगी तो पारलोक में मिल जालेगी" इस भाव से दण्ड का समादान (छहकाय का आरंभ) करता है ॥ सू० ४॥ પાપથી મારી મુક્તિ થઈ જશે, હું નિષ્કલંક બની સ્વર્ગાદિ લાભ કરી લઈશ” એવું માનીને તે પારલોકિક કાર્યો કરવા માટે છે કાયનો આરંભ કરે છે. આ પ્રકારના સાવદ્ય વ્યાપાથી નાનાવિધ દુર્ગતિઓને દેવાવાળા અને અનેક જન્મ જન્માન્તરેમાં પણ જેનો નાશ ન થાય તેવો પાપનો ભાર જ તે વહે છે. 'आशंसायै ' २ ५४थी मात सूत्रा२ सूचित ४२छे-ते मसल्य १श्तुने પામવાની ઈચ્છાથી પણ દંડનો સમારંભ કરે છે, “આ વસ્તુ મારી પાસે નથી પણ આત્મબલાદિ કાર્યો કરવાથી તે મને આજ નહિ તે કાલ, કાલ નહિ તે પરમ દિવસ મળી જશે, કદાચ અહીં નહિ મળે તે પરલેકમાં મળશે આ लावथा ६नु समाहान (७ अयनो मास) ४२ छ. ॥ सू० ४॥
SR No.009302
Book TitleAcharanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year
Total Pages780
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size52 MB
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