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________________ દૂરઢ आचारास्त्रे -- मालिकादिबन्धनेन, प्रतिमोपरि सचित्तपत्रपुष्पादिक्षेपणेन सचित्तनालिकेरदाडिमरसालफलादिनैवेद्योपचारेण च वनस्पतिहिंसां फारयन्तस्ते तदाश्रिताननेकविधान सस्थावरान् प्राणिनो घातयन्ति । नहि वीतरागाणां सावधा सपर्या समुचिता, 'एस खलु गंधे' इत्यादिवचनेन सर्वारम्भाणामस्मिन्नेवागमे तैः साक्षात् प्रतिषिद्धत्वात् । नहि तत्तत्यागिभ्यस्तत्तच्यक्तद्रव्यसमर्पणं तुष्टिकरं भवतीति । नहि लोके मद्यमांसस्यागिभ्यो मद्यमांससमर्पणं तत्परितोपाय जायते । अलं बहुना ! हरितकन्दमूलादित्यागिनः श्रावका अपि न हरितकन्दमूलादिसमर्पणेन संतुष्यन्तीति विचारयन्तु मनीषिणः ॥ ०५ ॥ अथ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामिनं जगाद - 'तत्य.' इत्यादि । वन्दनवार बाँधकर, प्रतिमा पर सचित्त पत्ते, फूल आदि चढाकर, सचित्त नारियल, दाडिम, आम आदि नैवेद्य के उपचार से वनस्पति को हिंसा करते हुए वे वनस्पति-आश्रित अनेक प्रकार के त्रस-स्थावर जीवों का घात करवाते हैं । वीतराग देव की पूजा सावध होना उचित नहीं है । 'एस खलु गंधे.' इत्यादि कथन द्वारा इसी आगम में समस्त आरंभों का वीतराग भगवान् ने साक्षात् निषेध किया है । जो पुरुष जिस वस्तु का व्यागी है, उसकी तुष्टि उस वस्तु को अर्पित करने से नहीं हो सकती । लोक में मध-मांस का त्याग करने वालों को मद्य-मांस की भेंट संतोषजनक नहीं होती । अधिक क्या कहें ! हरित कंद मूल : के त्यागी श्रावक भी हरित कन्दमूल की भेंट से प्रसन्न नहीं होते हैं । बुद्धिमान् पुरुष स्वयं विचार करलें || सू० ५ ॥ सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी से कहते हैं - 'तत्थ ' इत्यादि । વંદનવાર બાંધીને, પ્રત્તિમા ઉપર ચિત્ત પાંદડા, ફૂલ આદિથઢાવીને, સચિત્ત નાળિએર, દાડમ, આંખા આદિ નવેદ્યના ઉપચારથી વનસ્પતિની હિંસા કરીને તે વનસ્પતિ-આશ્રિત અનેક પ્રકારના ત્રસ—સ્થાવર જીવાને ઘાત કરાવે છે. વીતરાગદેવની પૂજા સાદ્ય હોય ते योग्य नथी, 'एस खलु गंथे.' त्याहि उथन द्वारा मा भागमभां तमाभ सभाર'ભેાના વીતરાગ ભગવાને સાક્ષાત્ નિષેધ કર્યો છે. જે પુરુષ જે વસ્તુના ત્યાગી છે, તેની પ્રસન્નતા તે વસ્તુને અણુ કરવાથી થઈ શકતી નથી. લેાકમાં મદ્ય-માંસના મેં ત્યાગી—ત્યાગ કરવાવાળાને મદ્ય–માંસની ભેટ સàાષ ઉત્પન્ન કરતી નથી, અધિક શું કહીએ! લીલા કંદમૂળના ત્યાગી શ્રાવક પણ લીલા કન્દમૂળની ભેટથી પ્રસન્ન થતા नथी तो शुद्धिमान पुरुष पोते विचार ४री सी. ॥ सू० ५ ॥ सुधर्मा स्वाभी क्र्भ्यू स्वाभीने हे छे' तत्थ. ' त्यिाहि. 5
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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