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________________ आचारचिन्तामणि- टीका अध्य. १ उ.४ . ९ अभिसमारम्भदोपः "जायतेयं न इच्छंति, पावगं जलड़तए । faraमन्नयरं सत्यं, सनओवि दुरासयं ॥ १ ॥ पाई पढिणं यात्रि, उ अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि य || २ || भृयाणसमाधाओं, वादो न संसओ । तं पवाडा, संजय किंचि नारभे || ३ ||" (दशचै० अ० ६) छाया -जावतेजसं नेच्छन्ति, पावकं ज्वालयितुम् । तीक्ष्णमन्यतरत् शस्त्रं, सर्वतोऽपि दुरासदम् ॥ १ ॥ माच्यां प्रतीच्यां वापि, ऊर्ध्वमनुदिवपि । अो दक्षिणतो नापि, दहेदुत्तरतोऽपि च ॥ २ ॥ भूतानामेप आघातो, हव्यवाही न संशयः । तं मदीपतानार्थ, संयतः किञ्चिन्नारभेत ॥ ३ ॥ ८७७ ct 'साधु अग्नि को जलाने की इच्छा तक नहीं करते, क्यों कि वह एक बडा ही तोखा शत्र है, जो किसी भी और से दुस्सह है- सभी ओर से जलाता है ॥१॥ यह अग्निशस्त्र पूर्व से भी और पश्चिम से भी ऊपर से भी और विदिशाओं की तरफ से भी नीचे से भी और दक्षिण से भी तथा उत्तर से भी जलाता है ॥२॥ अग्नि जीवों का घातक है, इस में कोई संशय नहीं है । साधु दीपक जलाने तथा प्रतापने के लिए उस का जरा भी आरंभ नहीं करते ||३|| (दशवे, अध्य, ६) फिर भी कहा है 66 સાધુ અગ્નિને સળગાવવાની ઇચ્છા સુધી કરતા નથી, કારણ તે એક મહાન तीक्ष्ण शस्त्र हे, ते पिए भालुधी दुस्सह हे-यारेय तरथी माणे छे. " ॥ २ ॥ આ અગ્નિશસ્ત્ર પૂર્વથી પણુ અને પશ્ચિમથી પશુ ઉપરથી અને વિદિશાઓની તરફથી પણ નીચેથી અને દક્ષિણથી પણુ અને ઉત્તરથી પણ મળે છે. ! ૨ ! ગ્નિ જીવેાને ઘાતક છે, તેમાં કાંઈ પણ સંશય નથી, સાધુ દીપક સળગાવવા तथा तापवाने भाटे तेन राउता नधी " || ३ || (हरावे. अध्य. ६) ફરી પણ કહે છે. प्र. मा.-७३
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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