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________________ - - आचारचिन्तामणि-टीका अध्य०१ उ.४०७ अग्निशस्त्रमारम्मकारणनिरूपणम् ५६७ समारंभइ, अण्णेहिं या अगणिसत्यं समारंभाचेइ, अण्णे वा अगणिसत्यं समारंभमाणे समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहीए । सू०७॥ छायावन खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चैव जीवितस्य परिवन्दनमानन· पूजनाय जातिमरणमोचनाय दुःखमतियातहेतुं स स्वयमेव अग्निशख समारमते, अन्यैर्वा अग्निशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा अग्निशस्त्रं समारममाणान् समनुजानाति, तत् तस्याहिताय, तत् तस्याबोधये ।। सू० ७ ॥ टीकातत्र अग्निकायसमारम्भे भगवता श्रीमहावीरेण परिज्ञा सम्यगवबोधः खलु मवेदिताम्पतियोधिता। कर्मवन्यसमुच्छेदार्थ जीवेन परिज्ञाऽवश्यं शरणीकरणीयेति भगवता प्रतियोधितमिति भावः । उपभोगद्वारम्लोकः कस्मै प्रयोजनायाग्निकायमुपमर्दयती ?-त्याह-'अस्य चैव जीवितस्ये' ' आरंभ करवाता है और अग्निशस्त्र का आरंभ करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है, सो यह उस के अहित के लिए है, यह अयोधि के लिए है ।। सू० ७ ॥ टीकार्थ----अनिकाय के समारंभ में श्री महावीरने सम्यक् उपदेश दिया है। आशय यह है कि कर्मबंध का नाश करने के लिए जीव को परिज्ञाका आश्रय अवश्य लेना चाहिए, ऐसा उपदेश दिया है। उपभोगद्वार-- किस प्रयोजन से लोग अग्निकाय की हिंसा करते हैं यह बतलाते हैं-इसी અગ્નિશઅને આરંભ કરવાવાળા બીજાને અનુમોદન કરે છે. તે એના (પોતાના) महित भाटे छ, त भयोधिने माटे छ. (२. ७) ટીકાથ–અગ્નિકાયના સમારંભમાં શ્રી મહાવીરે સમ્યફ ઉપદેશ આપે છે. આશય એ છે કે-કર્મબંધને નાશ કરવા માટે જીવે પરિજ્ઞાને આશ્રય અવશ્ય લે જોઈએ. એવો ઉપદેશ આપે છે. पसासारકયા પ્રજનથી લેક અગ્નિકાયની હિંસા કરે છે. એ બતાવે છે–આ ક્ષણભાર -
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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