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________________ ५५२ आचारात्सूत्रे सन्ति । एतावान् कालो वनस्पतिका इत्युच्यते । परिमाणतस्तु प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकानां निर्लेपना नास्ति । शरीरावगाहनया च सातिरेकं योजनसहस्रम् । अतो वनस्पतिकायस्य दीर्घलोक इति व्यपदेशः । ( प्रज्ञापना १८ पदे) ननु प्रसिद्धमग्निशब्दं विहाय किमर्थमिह दीर्घलोकशस्त्रशब्दोपादानम् ? उच्यते--- वनस्पतिकायदहनमवृत्तोऽग्निकायो बहुतरप्राणिनां विनाशको भवति, वनस्पतिकाये बहुविधाः प्राणिनः कीट पिपीलिका भ्रमरमधुमक्षिकाकपोतादयो निवसन्ति, तरुriety पृथिवीकायाथ, अवश्यायरूपा व्यपकाया अपि मृदुतर जितने समय होते हैं उतने हैं, इतना काल वनस्पतिकाल कहलाता है । परिमाण से प्रत्युत्पन्न वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना नहीं है । इनके शरीर की अवगाहना कुछ अधिक एक हजार योजन है । इसी कारण वनस्पतिकाय को दीर्घलोक कहते हैं । अब प्रश्न हो सकता है कि- प्रसिद्ध 'अग्नि' शब्द को छोड़ कर 'दीर्घलोकशस्त्र' शब्द का प्रयोग करने की क्या आवश्यकता थी ? इसका उत्तर यह है कि--वनस्पतिकाय को जलाने में प्रवृत्त अनिकाय और भी बहुत से प्राणियों का विनाश करता है । वनस्पतिकाय के सहारे कोडे, चिउंटी, भरे, agrrat और कबूतर आदि बहुत से प्राणी निवास करते हैं । वृक्षों को खतरों में पृथ्वीकाय के जीव भी होते हैं । भोसरूप अप्काय भी होता है, और अत्यन्त कोमल ભાગમાં જેટલા સમય થાય છે, તેટલા છે. એટલે કાળ તે વનસ્પતિકાળ કહેવાય છે. પરમાણુથી પ્રત્યુત્પન્ન વનસ્પતિકાયિક જીવેાની નિલે પના નથી. તેના શરીરની અવગાહના सुन्नर योजन हे भा रथी वनस्पति अपने ' दीर्घलोक ' हे छे. वेश्छे :-प्रसिद्ध अग्नि शब्दने छोडीने 'दीर्घलोकशन' શબ્દના પ્રયોગ કરવાની શું આવશ્યકતા હતી? તેના ઉત્તર એ છે કેન્દ્રનસ્પતિકાયને ખાળવામાં પ્રવૃત્ત (ચાલુ) અગ્નિકાય બીન્ત પણ પ્રાણીઓને વિનાશ કરે છે. વનસ્પતિના આશ્રયે કીડા, મ કેાડા, ભમરા, મધમાખી અને કબૂતર આદિ ઘણાં પ્રાણીઓ નિવાસ કરે છે. વૃક્ષાના બખેાલમાં પૃથ્વીકાયના જીવ પણ હેાય છે. ઝાકળરૂપ અપ્લાય પણ હોય છે, अधिक *
SR No.009301
Book TitleAcharanga Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages915
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size25 MB
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