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________________ श्रमण जीवनोचित अनेकानेक कार्यों में व्यस्त रहते हुए भी आपने शास्त्रानुशीलन और तत्त्वानुसंधान का कार्य सदैव गतिशील रखा। जैसा ऊपर की पंक्तियों में संकेत किया गया है, साधु जीवन में वाहा उपाधियों के प्रति आकर्षण नहीं होता, किंतु अध्ययन और अनुसंधान में विधिपूर्वक अग्रसर होने में उपयोगिता समझते हुए आपका डी. लिट् हेतु शोध ग्रंथ तैयार करने का भाव रहा । पूज्य महासतीजी महाराष्ट्र से आन्ध्र, कर्नाटक और तमिलनाडु की यात्रा हेतु प्रस्थान कर जब सोलापुर में विराजित थीं तब मुझे महासतीजी म. के प्रति अनन्य श्रद्धाशीला चेन्नै निवासिनी मेरी छात्रा डॉ. पूर्णिमा मेहता एम. ए., पी-एच.डी. से महासतीजी म. के तथा उनकी अन्तेवासिनी शोधार्थिनी साध्वियों के शोध कार्य में मार्गदर्शन एवं सहयोग करने हेतु समय देने का संदेश प्राप्त हुआ । राजस्थान में श्वेतांबर स्थानकवासी श्री नानक आम्नाय के युवामनीषी शासनगौरव श्री सुदर्शनलालजी महाराज तथा उनके आज्ञानुवर्ती साधु-साध्वियों के अध्यापन आदि महत्त्वपूर्ण कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के कारण तत्काल तो समय नहीं निकाल सका, किंतु महासतीजी म. के - प्रवास में अहिंसा शोध संस्थान, चेन्नै के निदेशक तथा जैन विद्या अनुसंधान प्रतिष्ठान, चेन्नै के अध्यक्ष, प्रबुद्ध समाजसेवी, जैन धर्म, दर्शन और साहित्य के अनन्य अनुरागी, आदरणीय श्री सुरेन्द्रभाई एम. मेहता की प्रेरणा से महासतीजी पूज्य डॉ. धर्मशीलाजी के सान्निध्य में उपस्थित होने का सुअवसर प्राप्त हुआ। श्रीमान् मेहता साहब ने अध्ययन - अनुसंधान संबंधी समस्त दायित्व बड़ी श्रद्धा और आदर के साथ स्वीकार किया। उनकी ओर से निरन्तर प्रेरणा प्राप्त होती रही। यही कारण है कि महत्त्वपूर्ण शोध कार्यों में सहयोग प्रदान करने हेतु समय-समय पर मेरा पाँच बार चेन्नै आगमन हुआ। शोध कार्य उत्तरोत्तर गतिशील रहे । यहाँ यह ज्ञाप्य है कि महासतीजी डॉ. धर्मशीलाजी म. णमोक्कार और पंच परमेष्ठी पदों पर वर्षों से गहन अध्ययन में संलग्न हैं। उन्होंने डी. लिट् के शोध-प्रबंध के लिए " णमो सिद्धाणं पद: समीक्षात्मक परिशीलन" को शोध विषय के रूप में स्वीकार किया। विषय अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं गंभीर है । महासतीजी अनवरत तद्विषयक अध्ययन में निरत हुए, अत एव ऐसे महान् विषय पर उन्होंने बहुत ही थोड़े समय में अपना शोध कार्य संपन्न कर लिया। मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि उनके इस विशाल शोध कार्य में मेरा निरंतर मार्गदर्शन एवं सहयोग रहा। महासतीजी डॉ. धर्मशीलाजी ने प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में सिद्धत्व विषयक दर्शन पर विभिन्न अपेक्षाओं से जैन आगमों तथा उत्तरवर्ती जैन साहित्य के अनेकानेक ग्रंथों से महत्त्वपूर्ण सामग्री समुपस्थापित की है। वेदांत, सांख्य, योग, मीमांसा एवं बौद्ध आदि दर्शनों के सिद्धांतों के साथ तुलना करते हुए इस संबंध में जो निष्कर्षमूलक नवनीत प्रस्तुत किया है, वह अत्यंत सारगर्भित है। सिद्धत्व, मोक्ष या निर्वाण साधक के जीवन का परम लक्ष्य है, जिसे साधने को वह सदा उत्कंठित, उद्यत और प्रयत्नशील रहता है। वह निश्चय ही धन्य और कृतकृत्य हो जाता है, जब वह उसे साध पाता है । 6
SR No.009286
Book TitleNamo Siddhanam Pad Samikshatmak Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsheelashreeji
PublisherUjjwal Dharm Trust
Publication Year2001
Total Pages561
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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