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________________ आत्मतत्त्वसमीक्षणम् स्वशरीराद्यदा भिन्नं स्वात्मानं ननु पश्यति। तदा योगविधिः सम्यक् जायते नात्र संशयः।।४५।। जब अपने शरीर से अपनी आत्मा भिन्न है ऐसा ज्ञान होता है तब निस्सन्देह योगविधि पूर्ण हो गया है यह समझें।।४५।। सर्वद्वन्द्वैर्मनो मुक्तं निर्विचारं भवेद्यदा। तदा स्पृहाविनाशाद्धि निरायासेन निर्वृतिः।।४६।। जब मन सभी विचारों से मुक्त होकर निर्विचार हो जाता है तब स्पृहा (इच्छा) नहीं होती तथा स्पृहा के नाश से अपने आप निर्वृत्ति हो जाती है।।४६।। सर्वविस्मरणान्नष्टे संसारविटपाङ्करे। जायते न पुनर्योगी विमुक्तो भवकाननात्।।४७।। सभी वस्तुओं के विस्मरण से संसाररूपी वृक्ष का अङ्कर नष्ट हो जाता है तथा उसके नष्ट होने पर योगी संसाररूप वन से मुक्त होकर पुनः जन्म धारण नहीं करता।।४७।। कर्मसंन्यासिनः शीघ्रं सर्ववृत्तिविरामतः। स्पन्दशून्यं भवेच्चित्तं सुलीनं स्वात्मनि स्वयम्।।४८।। कर्म से विरक्त योगी, शीघ्र ही सभी वृत्तियों (क्रियाओं) से विरमित होने से मन स्पन्दशून्य (सर्वथा शान्त) होकर स्वयं ही अपनी आत्मा में लीन हो जाता है।।४८।। विश्रान्तिमागतः स्वस्मिन्मनोनाशाद्धि योगवित्। तिष्ठति देहमध्येऽपि घृतकुम्भे यथा जलम्।।४९।। योग को जाननेवाले साधक की आत्मा मन के नाश (पूर्ण शान्त) होने से विश्राम प्राप्त करती हैं तथा अलिप्तभाव से शरीर में रहती हैं जैसे घी के घडे में पानी रहता है।।४९।। सम्प्राप्ते खलु नैराश्ये सर्वत्रैव विवेकतः। मुक्तयेऽपि न चिन्ता स्याद्योगिनो निःस्पृहस्य वै।।५०।।
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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