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________________ आशाप्रेमस्तुतिः १०३ संसारे दुःखपूर्णेऽस्मिन् सिद्धिमिच्छेद्य आत्मनः। आशे! प्रमादमुत्सृज्य सामरस्यं समभ्यसेत्।।८२।। हे आशे! इस दुःखमय संसार में आत्मा की सिद्धि चाहनेवालों को प्रमाद छोडकर समरसता का अभ्यास करना चाहिए। ।।८२।। आशे! तवैव सान्निध्यं पुण्यक्षेत्रं न संशयः। तथा ते प्रीतिसामर्थ्य ज्ञानसौभाग्यसिद्धिदम्।।८३॥ हे आशे! निस्सन्देह तुम्हारा सानिध्य ही तीर्थक्षेत्र है तथा तुम्हारा प्रेम सामर्थ्य, ज्ञान और सौभाग्य देनेवाले है। ।।८३।। आशे! ते सन्निधानेन मम चित्तं प्रसीदति। लभते पूर्णवैराग्यं सत्वरं ज्ञानगर्भितम्।।८४।। हे आशे! तुम्हारे सान्निध्य से मेरे मन में प्रसन्नता होती है और शीघ्र ही ज्ञान से भरा हुआ वैराग्य (संसार की नश्वरता का बोध) मिल जाता है। ।।८४।। आशे! ते शिवसंयोगादुत्पन्नामृतधारया। प्लावयामि ममात्मानं सदैवानन्दनिर्भरः।।८५।। हे आशे! तुम्हारे और शिव के संयोग से उत्पन्न अमृतधारा से आनन्द विभोर होकर मैं आत्मा को नहलाता हूँ। ।।८५।। आशे! विलोक्यते नूनं शृङ्गारे तव चातुरी। सामरस्ये यया जाते साम्यमेव प्रसर्पति।।८६।। हे आशे! शृंगार (प्रसन्नता) में तुम्हारी चतुरता दिखती है जिससे एकबार समरसता हो जानेपर समता ही गति करती है। ।।८६।। आशे! त्वं सात्त्विकी तस्माज्ज्ञानगोष्ठीरता ध्रुवम्। भोगेच्छारहिता लीना गिरीशस्मरणे सदा।।८७।। हे आशे! तुम सात्त्विकी हो इसलिए ज्ञान गोष्ठी में सदा रत रहती हो; भोग की इच्छा तुम्हे नहीं है तुम सदा भगवान् शंकर के ध्यान में लीन रहती हो। ।।८७।।
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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