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________________ योगकल्पलता स्फुरणमात्मतत्त्वस्य चित्ते शुद्ध भवेदतः। त्वयि संस्थाप्य मच्चित्तमाशे! संशोधयाम्यहम्।।१८।। हे आशे! आत्मतत्त्व का स्फुरण चित्त के शुद्ध होने पर होता है, अतः तुझमें मेरा मन लगाकर अर्थात् तुम्हारा ध्यान करके मैं अपने चित्त का शोधन करता हूँ। ।।१८।। आशे! त्वं परमा शक्तिगिरीशसहचारिणी। तस्य प्राणप्रिया धन्या सोऽपि तृप्तस्त्वया सदा।।१९।। हे आशे! तुम सर्वोत्कृष्टा शक्ति हो, भगवान् शंकर के साथ रहनेवाली हो, तुम भाग्यवती उनकी पत्नी हो, वे भी सदा तुमसे तृप्त हुये। (अर्थात् वह भी तुम्हारा ध्यान करते हैं।) ।।१९।। आशे! त्वद्ध्यानमग्नोऽहं पुलकाङ्कितविग्रहः। विस्मरामि जगत्सर्वं बहिस्संवेदनाक्षमः।।२०।। हे आशे! मैं तुम्हारे ध्यान में मग्न हूँ, शरीर रोमांचित हो गया है, किसी भी बाह्य वस्तु को जानने में अक्षम होने से संस्कार को भूल रहा हूँ। ।।२०।। त्वयि चित्तं समाधाय शुद्धभावेन सन्ततम्। आशे! सद्यो गिरीशोऽपि लभते ज्ञानमुत्तमम्।।२१।। हे आशे! भगवान् शंकर भी लगातार शुद्धभाव से तुम्हारा ध्यान करके तुरंत ही उत्तम ध्यान को प्राप्त करते है। ।।२१।। अशक्तो विरहं सोढुमेकान्ते मीलितेक्षणः। आशे! त्वां हि सदा चित्ते ध्यायामि प्राणवल्लभाम्।।२२।। हे आशे! तुम्हारा वियोग सहन करने में मै असमर्थ हूँ, तुम मेरी प्राणप्रिया हो, एकान्त में आँखे बन्द करके मैं तुम्हारा मन में सदा ध्यान करता हूँ। ।।२२।। आशे! त्वं सर्वभावज्ञा परमानन्दरूपिणी। ऐकात्म्यं तु गता साक्षाल्लीना मे हृदये ध्रुवम्।।२३।। हे आशे! तुम सभी मनोगतभावों को जाननेवाली हो, परमानन्दरूपा हो,
SR No.009267
Book TitleYogkalpalata
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGirish Parmanand Kapadia
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2015
Total Pages145
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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