SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ उड्डमहे तिरियम्मि य, सकोसयं सव्वतो हवति खेत्तं । इंदपयमाइएसुं छद्दिसि इयरेसु चउ पंच ॥७६॥ (छाया) तिणि दुवे एक्का वा वाघाएणं दिसा हवइ खेत्तं । उज्जाणाओ परेणं छिण्णमंडबं अखेत्तं ॥७७॥ (विद्या) दगघट्ट तिणि सत्त व उडुवासासु ण हणंति तं खेत्तं । चट्ठाति हति जंघद्धे कोवि उ परेणं ॥ ७८ ॥ ( धात्री ) दव्ववणाऽऽहारे ९ विगई २ संथार ३ मत्तए ४ लोए ५ । सच्चित्ते ६ अचित्ते ७ (य) वोसिरणं गहण - धरणाइं ॥ ७९ ॥ ( देही) ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च, सक्रोशकं सर्वतो भवति क्षेत्रम् | इन्द्रपदादिकेषु षड्दिक्षु इतरेषु चतस्रः पञ्च ॥७६॥ तिस्त्रो द्वे एका वा व्याघातेन दिशा भवति क्षेत्रम् । उद्यानात् परेण छिन्नमडम्बं त्वक्षेत्रम् ॥७७॥ दकघट्टानि त्रीणि सप्त च ऋतुवासयोः न घ्नन्ति तत्क्षेत्रम् । चतुरष्टौ इति घ्नन्ति जङ्घार्द्धं कोऽपि तु परेण ॥७८॥ द्रव्यस्थापनाऽऽहारे विकृतौ संस्तारकमात्रकलोचेषु । सचित्ते अचित्ते व्युत्सर्जनग्रहणधारणानि ॥७९॥ कल्पनिर्युक्तिः ऊपर-नीचे और तिरछे एक कोस तक चारों ओर क्षेत्र होता है । ( पर्वत पर ऊपर और नीचे भी ग्राम होता है अतः पर्वत पर मध्य स्थित ग्राम की दृष्टि से ) छः दिशायें होती है । अन्य स्थितियों में क्षेत्र के चार, पाँच, तीन, दो अथवा एक दिशा व्याघात से होती है । उपवन आदि के परे जिन ग्रामों और नगरों के सभी दिशाओं में ग्राम और नगर नहीं होते हैं, ये छिन्नमडंबा अक्षेत्र होते हैं ॥७६ ७७॥ जहाँ जसे की आधी ऊँचाई तक जल हो, वहाँ ऋतुकाल में तीन बार (आना-जाना ६ बार और वर्षाकाल में ७ बार ( आना-जाना १४ बार) गमन से क्षेत्र का उपघात नहीं होता है । (जबकि ऋतुकाल में) ४ बार (आना-जाना ८ बार और वर्षाकाल में) आठ बार ( आना-जाना १६ बार) गमन से क्षेत्र का उपघात होता है । जहाँ जाँघ से ऊपर जल है, वहाँ (ऋतुकाल और वर्षाकाल में) एक बार भी गमन से कोई क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण करता है ॥७८॥ द्रव्यस्थापना में आहार, विकृति, संस्तारक, मात्रक, लोच, सचित्त और अचित्त का परित्याग, ग्रहण, धारण आदि आते हैं ||७९ ||
SR No.009260
Book TitleKalpniryukti
Original Sutra AuthorBhadrabahusuri
AuthorManikyashekharsuri, Vairagyarativijay
PublisherShrutbhuvan Sansodhan Kendra
Publication Year2014
Total Pages137
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy