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________________ (क्र.1) इस त्रस नाली में निगोद से स्वर्गों तक परिभ्रमण करते हुए, (क्र.2) अनादिकाल से चारों गतियों की 84 लाख योनियों में जन्म-मरण कर रहा हूँ | (क्र.3) खोटे कर्म करके कभी अधोगति नरक में गया हूँ। (क्र.4) हे प्रभु! शक्ति देना कि ऐसे कार्य नहीं करूँ जिससे नरक जाना पड़े | (क्र.5) कभी छल-कपट करके तिर्यंच गति में गया, (क्र.6) मैं तिर्यंच गति में न जाने के लक्ष्य से छल-कपट के त्याग का संकल्प करता हूँ। (क्र.7) कभी शुभ भावों से मरण कर देव गति को प्राप्त हुआ, (क्र.8) मैं असंयमी देव भी नहीं होना चाहता | (क्र.9) कभी शुभ संकल्प व्रतादि धारण कर मानव पर्याय पाई, (क्र.10) मैं इसमें उत्कृष्ट संयम पालन करने की भावना करता हूँ | यह परिभ्रमण मूलतः अज्ञान, मिथ्यात्व, मोह एवं विषय-कषाय के कारण से हो रहा है। इन्हें मिटाने के लिए मैं पूजासंकल्प करता हूँ कि (क्र.11) प्रथमानुयोग (क्र.12) करणानुयोग (क्र.13) चरणानुयोग एवं (क्र.14) द्रव्यानुयोग का स्वाध्याय करके मैं सुख से शून्य चारों गतियों से छूटने के लिए (क्र.15) सम्यक्दर्शन, (क्र.16) सम्यक्ज्ञान एवं (क्र.17) सम्यक्चारित्र को प्राप्त करूँगा तथा रत्नत्रय की पूर्णता करके (क्र.18) सिद्ध शिला से ऊपर मानव पर्याय के परम लक्ष्य (क्र.19) सिद्ध पद को प्राप्त करूँगा। Svāstika hamārī pūjā kē uddēśya kā sārthaka pratīka hai. Nirvāṇa hõnē para bhagavāna kā sarīra kapūra ki taraha ura jātā hai, kēvala nakha aura kāśa śēsa raha jātē haim jinhēm indra sansārī jīvām ki bhāvanā kē anurūpa, māyāvī sarīra sē jūra kara dāha-sanskāra sampanna karte hai; aura usa sthalī para apanē vajra sē svāstika ākāra kā amētya svasti-cihna banātā hai, tāki pavitratā kī raksā bhi ho sakē aura sthala bhi anantakāla kē li'ē prakata aura pūjya banā rahē. Yahī cihna 'svāstika' 31
SR No.009252
Book TitleJin Vani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages771
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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