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________________ श्री वासुपूज्य जिन हो आप सर्व समर्थ जिनवर, अर्घ्य क्या अर्पण करूँ। प्रभु आप ही के नंत गुण का, राज दिन सुमिरण करूँ ।। श्री 'वासुपूज्य शतेन्द्र पूजित, मैं करूँ आराधना। संसार से घबरा गया हूँ, बन सकूँ परमातमा।..॥ ऊँ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। श्री विमलनाथ जिन मैं पर का नहीं कर्ता होता, पर भी मेरा क्या करता । निमित्त भाव से कर सकता पर, उपादान से क्या करता ।। पुण्योदय से आप कृपा से, भास रहा है आत्म स्वरूप। पा जाऊँ अब निज प्रभुता को, छूट जाए यह भव दुःख कूप ॥..॥ ऊँ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्दायअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। श्री अनंतनाथ जिन वसु द्रव्यलेय श्रेष्ठ आत्म द्रव्य मिलाऊँ। अनंतनाथ के चरण में शीघ्र चढ़ाऊँ । अनंत ज्ञान हेतु नाथ प्रार्थना करूँ। सिद्ध पद के हेतु अर्चना करूँ।..॥ ऊँ ह्रीं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा। 57
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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