SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री विमलनाथ जिन आठों दरब संवार, मन-सुखदायक पावने। जजों अरघ भरथार, विमल विमल शिवतिय रमण।। ॐ ह्रीं श्रीविमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री अनन्तनाथ जिन शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर-जोर-जुग विनति करों।। जगपूज परम-पुनीत मीत, अनंत संत सुहावनों। शिवकंतवंत मंहत ध्यावौं, भ्रतवन्त नशावनो।। ऊँ ह्रीं श्रीअनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। श्री धर्मनाथ जिन आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि-हरषि गुनगाई। बाजत दृम दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई।। परमधरम-शम-रमन धरमजिन, अशरन-शरन निहारी। __ पूजौं पाय गाय गुन-सुन्दर नाचें दे दे तारी।। ऊँ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 32
SR No.009251
Book TitleJin Samasta Ardhyavali Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy