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जैनध्वज का माप:-यह ध्वज आकार में आयताकार है तथा इसकी लंबाई व चौडाई का अनुपात 3-2 है। इस ध्वज में पाँच रंग हैं। लाल, पीला, सफेद, हरा और नीला (काला)। लाल, पीले, हरे, नीले रंग की पट्टियाँ चौडाई में समान है तथा सफेद रंग की पट्टी अन्य रंगो की पट्टी से चौडाई में दुगुनी होती है। (श्रावकों को तथा ध्वज बनाने वाले को जानकारी नहीं होने से वे पाँचौरंग की पट्टी की चौडाई एक समान कर देते है जो आगम के प्रतिकुल है।) ध्वज के बीच में जो स्वस्तिक है, उसका रंग केसरिया है। जैन समाज के इस सर्वमान्य ध्वज में पाँच रंगों को अपनाया गया है जो पंचपरमेष्ठी के प्रतीक है। ध्वज के श्वेत रंग-अर्हन्त परमेष्ठी (घातिया कर्म का नाश करने पर शुद्ध निर्मलता का प्रतीक) । लाल रंग-सिद्ध परमेष्ठी (अघातिया कर्म की निर्जरा का प्रतीक), पीला रंग- आचार्य परमेष्ठी (शिष्यों के प्रति वात्सल्य का प्रतीक)। हरा रंग-उपाध्याय परमेष्ठी (प्रेम-विश्वास-आप्तता का प्रतीक)। नीला रंग-साधु परमेष्ठी (साधना में लीन होने का और मुक्ति की ओर कदम बढ़ाने का प्रतीक)। ये पाँच रंग, पंच अणुव्रत एवं पंच महाव्रतों के प्रतीक रूप भी सफेद रंग अहिंसा, लाल रंग सत्य, पीला रंग अचौर्य, हरा रंग ब्रह्मचर्य और नीला रंग अपरिग्रह का द्योतक माना जाता है। ध्वज के मध्य में स्वस्तिक को अपनाया गया है जो चतुर्गति का प्रतीक है। यथा
'नरसुरतिर्यडनारकयोनिषु परिभ्रमति जीवलोकोयम्
कुशला स्वस्तिकरचनेतीव निदर्शयति धीरणाम्।। "अर्थात् यह जीव इस लोक में मनुष्य देव, तिर्यंच तथा नारक योनियों (चतुर्गति) में परिभ्रमण करता रहता है, मानो इसी को स्वस्तिक की कुशल रचना व्यक्त करती है।
स्वस्तिक चिन्ह जैन धर्म का आदि चिन्ह है जिसे सदा मागलिक कार्यों में प्रयोग किया जाता है। इतिहास की दृष्टि से मथुरा के पुरातत्व संग्रहालय में स्थित तीर्थकर पार्श्वनाथ की मूर्ति पर बने ये सात सर्प-फणों में से एक पर अंकित है। स्वस्तिक का चिन्ह मोहन-जो-दडों के उत्खनन में भी अनेक मुहरों पर प्राप्त हुआ है। विद्वानों का मत है कि पाँच हजार वर्ष पूर्व को सिन्धु सभ्यता में स्वस्तिक-पूजा प्रचलित थी। जो कि प्राचीनता का द्योतक है।
स्वास्तिक के ऊपर तीन बिन्दू हैं, जो सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यकचारित्र को दति हैं। यथा'सम्यग्दर्शनज्ञाानचारित्राणि मोक्षमार्गः।।
-आचार्य उमास्वामी, तत्वार्थसूत्र. 1/1 तीन रत्न के ऊपर अर्धचन्द्र-जीव के मोक्ष या निर्वाण की कल्पना की गई है अर्थात सिद्धशिला को लक्षित करता है। जीव स्वर्ग, मर्त्य एवं पाताल लोक सर्वत्र व्याप्त है। नारकी जीय धर्भ से देवता बन सकता है और रत्नत्रय को धारण कर मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। अर्द्धचन्द्र के ऊपर जो बिन्दु है वह उत्तम सुख का प्रतीक है।
-(जैन शासन ध्वज के सहयोग से)
-अभय बाकलीवाल. 1818, सुदामा नगर, इन्दौर मोबाइल : 8989276818