SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 40
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ “अनन्तविजय” सुत तिलक-कराकर, देवोमई शिविका पधरा कर । गए सहेतुक वन जिनराज, दीक्षित हुए सहस नृप साथ । द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मासा, तीन दिन का धारा उपवास । गए अयोध्या प्रथम योग कर, धन्य 'विशाख' आहार करा कर । मौन सहित रहते थे वन में, एक दिन तिष्ठे पीपल- तल में । अटल रहे निज योग ध्यान में, झलके लोकालोक ज्ञान में। कृष्ण अमावस चैत्र मास की, रचना हुई शुभ समवशरण की। जिनवर की वाणी जब खिरती, अमृत सम कानों को लगती। चतुर्गति दुख चित्रण करते, भविजन सुन पापों से डरते । जो चाहो तुम मुयित्त पाना, निज आतम की शरण में जाना । सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित हैं, कहे व्यवहार में रतनत्रय हैं। निश्चय से शुद्धातम ध्याकर, शिवपट मिलना सुख रत्नाकर । श्रद्धा करके भव्य जनों ने, यथाशक्ति व्रत धारे सबने । हुआ विहार देश और प्रान्त, सत्पथ दर्शाये जिननाथ । अन्त समय गए सम्मेदाचल, एक मास तक रहे सुनिश्चल । कृष्ण चैत्र अमावस पावन, भोक्षमहल पहुंचे मनभावन । उत्सव करते सुरगण आकर, कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर । शुभ लक्षण प्रभुवर का ‘सेही', शोभित होता प्रभु- पद में ही। हम सब अरज करे बस ये ही, पार करो भवसागर से ही। है प्रभु लोकालोक अनन्त, झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त । हुआ अनन्त भवों का अन्त, अद्भुत तुम महिमां है “अनन्त' । जापः - ॐ ह्रीं अहँ श्री अनन्तनाथाय नमः 40
SR No.009247
Book TitleJain Chalisa Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy