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________________ मध्यलोक के चार सौ अट्ठावन जिनमंदिर की आरती जय सिद्ध प्रभो, अरहंत प्रभो, अकृत्रिम जिनवर धाम की, मैं आज उतारूँ आरतिया।टेक.। मध्यलोक में चार शतक, अट्ठावन जिन चैत्यालय। जिनप्रतिमा से शोभित सुन्दर, सौख्य सुधारस आलय।।प्रभू जी.॥ प्रभु दर्श करो, स्पर्श करो, शुभ चरणधूलि भगवान की, ___मैं आज उतारूँ आरतिया।।१।। तीन छत्रयुत श्रीजिनप्रतिमा, सिंहासन पर राजे। चौसठ चँवर ढुरावें सुरगण, और बजावें बाजे।।प्रभू जी.॥ प्रभुपद नम लो, मन में धर लो, ओंकार धुनी भगवान की, __मैं आज उतारूँ आरतिया।।२।। निजानंद सुख के सागर में, मग्न प्रभो रहते हैं। वीतराग परमानंदामृत, स्वातम रस चखते हैं।।प्रभू जी.।। तुम भी चख लो, आतम रस को, यह वाणी है मुनिनाथ की, मैं आज उतारूँ आरतिया।।३॥ मंगल आरति करके प्रभुवर, यही याचना करते। अपने से गुण मुझको देकर, निज सम मुझको कर ले।।प्रभू जी.॥ श्री सिद्ध प्रभो, अरहंत प्रभो, “चंदनामती' शिवधाम की, मैं आज उतारूँ आरतिया।।४।। 150
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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