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________________ श्री ऋषभदेव की आरती (3) जयति जय जय आदि जिनवर, जयति जय वृषभेश्वरं। जयति जय घृतदीप भरकर, लाए नाथ जिनेश्वरं।।टेक.।। गर्भ के छह मास पहले से रतनवृष्टी हुई। तेरे उपदेशों से प्रभु जग में नई सृष्टी हुई।। मात मरुदेवी पिता श्री नाभिराय के जिनवरं।।जयति.....॥१॥ जन्मभूमि नगरि अयोध्या त्याग भूमि प्रयाग है। शिव गए कैलाशगिरि से तीर्थ ये विख्यात है।। पंचकल्याणकपती पुरुदेव देव महेश्वरं।।जयति...........॥२॥ तुमसे जो निधियां मिलीं वे इस धरा पर छा गई। नर में ही नहिं नारियों के भी हृदय में समा गई। मात ब्राह्मी-सुन्दरी के पूज्य पितु जगदीश्वरं।।जयति.....॥३।। तेरी आरति से प्रभो आरत जगत का दूर हो। "चंदनामती' रत्नत्रय निधि मेरे मन में पूर्ण हो।। ज्ञान की गंगा बहे , आशीष दो परमेश्वरं।।जयति..........॥४॥ 13
SR No.009245
Book TitleJain Arti Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages165
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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