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________________ वसुविधि के सुन्दर द्रव्य ल्याय, जिनराज चरण आगे चढ़ाय । फिर करत आरती शुद्ध भाव, जिनराज सभी लख हर्ष आव ॥३१॥ तुम देवन केह देवदेव, इक अरज चित्त में धारि लेव। हे दीन दयाल दया कराय, जो मैं दुखिया इह जग भ्रमाय॥३२॥ जे इस भव वन में वास लीन, जे काल अनादि गमाय दीन । मैं भ्रमत चतुर्गति विपिन मांहि, दुःख सहे सुक्ख को लेख नाहिं ॥३३ ॥ ये कर्म महारिपु जोर कीन, जे मनमाने ते दुःख दीन । ये काहू को नहिं डर धराय, इनतें भयभीत भयो अघाय ॥३४ ॥ यह एक जन्मकी बात जान, मैं कह न सकत हँ देवमान । जब तुम अनन्त परजाय जान, दरशायो संसृति पथ विधान ॥३५॥ उपकारी तुम बिन और नांहि, दीखत मोकों इस जगत मांहि । तुम सब लायक ज्ञायक जिनन्द, रत्नत्रय सम्पत्ति द्यो अमन्द ॥३६ ॥ यह अरज करूँ मैं श्री जिनेश, भव भव सेवा तुम पद हमेश। भव भव में श्रावक कुल महान, भव भव में प्रकटित तत्वज्ञान ॥३७ ॥ भव भव में व्रत हो अनागार, तिस पालन तैं हो भवाब्धि पार । ये योग सदा मुझको लहान, हे दीनबन्धु करुणा-निधान ॥३८॥ दौलत आसेरी मित्र होय, तुम शरण गहीहरषित सुहोय । छन्द घत्तानन्दा जो पूजै ध्यावे, भक्ति बढ़ावै, ऋषि मंडल शुभ यंत्र तनी। या भव सुख पावै सुजस लहावै परभव स्वर्ग सुलक्ष धनी ।। ॐ हीं सर्वोपद्रव विनाशन समर्थाय रोग शोक सर्व संकट हराय सर्वशान्ति पुष्टि कराय, श्री वृषभादि चौबीस तीर्थंकर, अष्ट वर्ग, अरहंतादि पंचपद, दर्शन ज्ञान चारित्र, चतुर्णिकाय देव, चार प्रकार अवधिधारक श्रमण, अष्ट ऋद्धि संयुक्त ऋषि मंडल, चौबीस देवी, तीन हीं, अर्हत बिंब, दशदिग्पाल इति यन्त्र सम्बन्धी देव देवी सेविताय परम देवाय जयमाला-पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा । ऋषि मंडल शुभ यंत्र को जो पूजे मन लाय । ऋद्धि सिद्धि ता घर बसै, विघन सघन मिट जाय ॥ 753
SR No.009243
Book TitleChovis Bhagwan Ki Pujaye Evam Anya Pujaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages798
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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