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________________ समन्तभद्र-विचार-दीपिका उस नवागन्तुक भक्तहृदय मनुष्यको अपने-अपने घर भोजन कराने लगे और उसकी दूसरी भी अनेक आवश्यकताओकी पूर्ति बड़े प्रेमके साथ करने लगे, जिससे वह सुरवसे अपना जीवन व्यतीत करने लगा और उसका भक्ति-भाव और भी दिन पर दिन बढ़ने लगा । कभी-कभी वह भक्तिमे विह्वल होकर सन्तके चरणोमे गिर पड़ना और बड़े ही कम्पित स्वरमे गिड़गिड़ाता हुआ कहने लगता-'हे नाथ | श्राप ही मुझ दीन-हीनके रक्षक है, आप ही मेरे अन्नदाता है, आपने मुझे वह भोजन दिया है जिससे मेरी जन्म-जन्मान्तरकी भूख मिट गई है। आपके चरणशरणमे आनेसे ही मै सुखी बन गया हूँ, आपने मेरे सारे दु.ख मिटा दिये है और मुझ वह दृष्टि प्रदान की है जिससे मै अपनेको और जगत्को भले प्रकार देख सकता हूँ। अब दयाकर इतना अनुग्रह और कीजिये कि मैं जल्दी ही इस संसारके पार हो जाऊँ।' यहाँ भक्त-द्वारा सन्तके विपयम जो कुछ कहा गया है वैसा उस सन्तने स्वेच्छासे कुछ भी नहीं किया। उसने तो भक्तके भोजनादिकी व्यवस्थाके लिये किसीसे संकेत तक भी नहीं किया और न अपने भोजनमेंसे कभी कोई प्रास ही उठाकर उसे दिया है; फिर भी उसके भोजनादिकी सब व्यवस्था होगई । दूसरे भक्त जन स्वयं ही बिना किसीकी प्रेरणाके उसके भोजनादिकी सुव्यवस्था करनेमें प्रवृत्त होगये और वैसा करके अपना अहोभाग्य समझने लगे। इसी तरह सन्तने उस भक्तको लक्ष्य करके कोई खास उपदेश भी नहीं दिया; फिर भी वह भक्त उस सन्तकी दिनचर्या और अवाग्विसर्ग ( मौनोपदेशरूप ) मुख-मुद्रादिक परसे स्वयं ही उपदेश ग्रहण करता रहा और प्रबोधको प्राप्त होगया। परन्तु यह सब कुछ घटित होनेमे उस सन्त पुरुपका व्यक्तित्व ही प्रधान निमित्त कारण रहा है-भले ही वह कितना ही उदासीन क्यो न हो । इसीसे भक्त-द्वारा उसका सारा श्रेय उक्त सन्तपुरुष
SR No.009240
Book TitleSamantbhadra Vichar Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir
Publication Year1954
Total Pages40
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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