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________________ प्रतिक्रमण - आवश्यक ] [ १३७ छे। आत्मज्ञानी एम माने छे के शरीर वगेरे बीजा कोई परपदार्थो जीवने सगवड - अगवड के सुख-दुःख आपता नथी; मात्र कल्पना करीने तेमां सगवड - अगवडनो आरोप अज्ञानी जीव करे छे । ज्ञानी तो पोताना शुद्धभावने सुख - सगवडरूप माने छे अने शुभ-अशुभ भावोने दुःख अगवडरूप माने छे । कोई पण पर जीव आ आत्मानो शत्रु के मित्र छे ज नहि; मात्र पोतानो शुद्ध भाव ते मित्र अने अशुद्ध-शुभाशुभ भाव ते वैरी छे । जड़-चेतननो संयोग के वियोग ते तो ज्ञेय मात्र छे। खरी रीते तो कोइ जड-चेतननो संयोग-वियोग थतो नथी; केमके दरेक द्रव्य पोतपोताना (स्व) क्षेत्रमां ज रहे छे । ते द्रव्यो स्वयं पोताना कारणे आकाश क्षेत्र बदलावे छे अने ए रीते पर द्रव्यनुं क्षेत्र बदलावाथी आ जीवने कांइ लाभनुकसान तुं नथी पोतपोताना स्वभावमां जोडाइ रहे एटले के शुद्ध भाव ( एकाकार रूप ) प्रगट करे अने पोतानामांथी अशुद्ध भावोनो वियोग करे ए ज जीवने लाभनुं कारण छे; अहीं ए ज भावना छे । घर हो के जंगल हो ते बन्ने पर वस्तु छे; ते कोइ जीवने लाभ - नुकसान करता नथी एम ज्ञानी जाणे छे । २. वस्तु-स्वरूपनी साची मान्यता थया पछी सम्यग्दृष्टि जीव ऊपर मुजबनी भावना करे छे । साधक दशामां तेनो राग क्रमेक्रमे टळे छे; ज्यां सुधी राग रहे छे त्यां सुधी पर तरफ लक्ष जाय छे, तेथी ते राग तोडीने, लक्षने स्व तरफ वाळीने, निर्विकल्प रागरहित दशा प्रगट करवानी आ भावना छे; आमां सदाय माटे वीतरागतानी भावना करी छे । '३. आ श्लोकमां 'अशेष' शब्द वापर्यो छे ते एम सूचवे छे के अभिप्रायमांथी तो पर द्रव्य संबंधी ममत्वबुद्धि टळी गइ छे पण चारित्रमां कांइक अंशे ममत्व रह्युं छे ते टली जाओ एवी भावना अहीं करी छे ।
SR No.009232
Book TitlePratikraman Aalochana Samayik Path
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Mumukshu Mahila Mandal
PublisherJain Mumukshu Mahila Mandal
Publication Year2002
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size52 MB
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