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________________ गुरुदेव कहते हैं... संसार में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसके प्रति स्नेह करने के बाद कभी अरुषि का भाव पैदा न हुआ हो ! पत्नी भले ही रुप के अंबार जैसी मिली हो या करोड़ों का हीरा हाथ की अंगुली में हो, पर क्या उसके प्रति राग अखण्डित रहता है? उसके प्रति भी कभी घृणा पैदा होती है या नहीं? सूरत-ॐकारसूरि आराधना भवन में मैं मेरे आसन पर बैठा था। और गुरुदेव, यह संदेशा मिला "गुरुदेव बुला रहे हैं।" मैं तुरन्त खड़ा होकर आप जहाँ विराजमान थे उस कमरे के द्वार तक पहुँच तो गया, पर वहाँ मुझे शासनप्रभावक, पूज्यपाद पंन्यास श्री। चन्द्रशेखरविजयजी महाराज भी मिल गये और आचार्य (उस वक्त । पंन्यास) श्री हेमरत्नसूरि भी मिल गये। "क्यों अभी?" "गुरुदेव ने बुलाया है।" हम तीनों भीतर आये।"दरवाजा बंद करो।" गुरुदेव, आप बस इतना ही बोले और हम तीनों को लगा कि आज निश्चित् ही अपनी अच्छी-खासी धुलाई होने वाली है। तभी आपने बात शुरू की, "देखो, तुम तीनों प्रवचन तो अच्छा ही करते हो पर प्रवचनों में बार-बार आगमग्रंथ तथा प्रकरणों के नाम के साथ उनकी शास्त्रपंक्तियाँ भी बोलते जाओ। ऐसा। करने से श्रोताओं के मन पर गहरा असर होगा। शास्त्रों और शास्त्रकार परमर्षियों के प्रति उनके मन में आदरभाव पैदा हो जाए, यह भी प्रवचन की। छोटी-मोटी फलश्रुति नहीं है।" गुरुदेव! "शास्त्रों को प्रधानता देने से वीतराग को ही प्रधानता दी। जाती है।" यह बात आपके मन में कितनी दृढ़रूप से बैठी है, यह। प्रतीति हम तीनों को उसी समय हो गई थी। DG
SR No.008925
Book TitleJivan Sarvasva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnasundarsuri
PublisherRatnasundarsuriji
Publication Year
Total Pages50
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati & Spiritual
File Size23 MB
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